Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 51
________________ जैन दर्शन में भक्ति के सच्चे स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उपाध्याय देवचन्द्रजी लिखते हैं - अज-कुल-गत केशरी लहे रे निज पद सिंह निहाल। तिम प्रभु भक्ति भवी लहे रे आतम शक्ति सभाल।। जिस प्रकार भेड़-बकरियों के साथ पला हुआ सिंह का बच्चा वास्तविक सिंह के दर्शन से अपने प्रसुप्त सिंहत्व को प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार साधक तीर्थंकर के गुण-कीर्तन या स्तवन के द्वारा निज में जिन व को शोध कर लेता है, स्वयं में निहित परमात्मशक्ति को प्रकट कर लेता है। जैन साधना यह स्वीकार करती है कि भगवान् की स्तुति हमारी प्रसुप्त अन्तश्चेतना को जाग्रत करती है और हमारे सामने साधना के आदर्श का एक जीवन्त चित्र उपस्थित करती है। मात्र यही नहीं, वह हमें उस आदर्श की प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी देती है। जैन विचारकों ने यह स्वीकार किया है कि भगवान् की स्तुति के माध्यम से व्यक्ति अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। यद्यपि इसमें प्रयत्न व्यक्ति का ही होता है लेकिन साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी प्रेरणा का निमित्त अवश्य होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शन विशुद्धि होती है। उसका दृष्टिकोण सम्यक् बनता है और परिणामस्वरूप वह आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़ सकता है। यद्यपि जैनधर्म में यह माना गया है कि भगवद् भक्ति के फलस्वरूप पूर्व संचित कर्मों का क्षय होता है, तथापि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं वरन व्यक्ति के दृष्टिकोण की विशुद्धि ही है। आवश्यक नियुक्ति में जैनाचार्य भद्रबाहु ने इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि भगवान् के नामस्मरण से पाप क्षीण होते हैं (१०७६)। आचार्य विनयचंद्र भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं - पाप-पराल को पुंज बन्यो अति, मानो मेरू आकारो। ते तुम नाम हुताशन सेती, सहज ही प्रजलत सारो।। हे प्रभु आपकी नामरूपी अग्नि में इतनी शक्ति है कि उससे मेरू समान पाप समूह भी शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। किन्तु यह प्रभाव प्रभु के नाम का नहीं अपितु साधक की आत्मिक शक्ति है। जैसे मालिक के जागने पर चोर भाग जाते है, उसी प्रकार प्रभु के स्वरूप के ध्यान से आत्म-चेतना या स्वशक्ति का भान होता है और पाप रूपी चोर भाग जाते हैं। सम्यग्ज्ञान का स्वरूप एवं स्थान बन्धन या दुःख के कारणों की विवेचना में लगभग सभी विचारकों ने अज्ञान को एक प्रमुख तत्त्व माना है और इसलिए दु:ख-विमुक्ति के उपायों में ज्ञान को प्रमुखता 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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