Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 37
________________ और चले जाने की सूचनायें भर है, वह इनसे अप्रभावित हैं। सच्चा जीवन तो आत्म चेतनता है, अप्रमत्त दशा है, समभाव में अवस्थिति है। जैन दर्शन में इसे ही स्वरूप में रमण या आत्म-रमण कहा गया है। यही ज्ञाता द्रष्टाभाव है, अपने आप में होना है। चेतना के तीन पक्ष और जैन-साधना - मनोवैज्ञानिकों ने चेतना का विश्लेषण कर उसके तीन पक्ष माने हैं, ज्ञान, अनुभूति और संकल्प। आत्मा/चेतना को अपने इन तीन पक्षों से भिन्न कहीं देखा नहीं जा सकता है। चेतना इन तीन प्रक्रियाओं के रूप में ही अभिव्यक्त होती है। चेतन जीवन ज्ञान अनुभूति और संकल्प की क्षमताओं के विकास के रूप में परिलक्षित होता है। जैन विचारकों की दृष्टि में चेतना के ये तीनों पक्ष साधना मार्ग से निकट रूप से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन में चेतना के इन तीन पक्षों के आधार पर ही नैतिक आदर्श का निर्धारण किया गया है। जैन धर्म का आदर्श मोक्ष है और मोक्ष अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सौख्य और अनन्त शक्ति को उपलब्धि है। वस्तुत: मोक्ष चेतना के इन तीनों पक्षों की पूर्णता का द्योतक है। जीवन के ज्ञानात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त ज्ञान एवं दर्शन में, जीवन के भावात्मक या अनुभूत्यात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त सौख्य में और संकल्पात्मक पक्ष की पूर्णता अनन्त शक्ति में मानी गई है। जैन साधना पथ भी चेतना के इन्हीं तीन तत्त्वों - ज्ञान, भाव और संकल्प के साथ सम्यक् विशेषण का प्रयोग करके निर्मित किया गया है। ज्ञान से सम्यक् ज्ञान, भाव से सम्यक् दर्शन और संकल्प से सम्यक् चारित्र का निर्माण हुआ है। इस प्रकार जैन दर्शन में साध्य, साधक और साधना पथ इन तीनों पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार हुआ है। जीवन का साध्य-समत्व का संस्थापन हमारी साधना का लक्ष्य क्या है? यह प्रश्न मनोविज्ञान और धर्म दर्शन दोनों की ही दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। जैन दर्शन में इसे मोक्ष कहकर अभिव्यक्त किया गया है किन्तु यदि हम जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष का विश्लेषण करें तो मोक्ष वीतरागता की अवस्था है और वीतरागता चेतना के पूर्ण समत्व की अवस्था है। इस प्रकार जैन दर्शन में समत्व को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु समत्व ही जीवन का आदर्श हो सकता है क्योंकि यह ही हमारा स्वभाव है और जो स्व-स्वभाव है वहीं आदर्श है। स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है। स्पेन्सर, डार्विन एवं मार्क्स प्रभृति कुछ पाश्चात्य विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव वह होता है, जिसका निराकरण नहीं किया जाता। जैन दर्शन के अनुसार नित्य और निरापवाद वस्तु धर्म ही स्वभाव है। यदि हम इस कसौटी पर कसें, तो संघर्ष जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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