Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ अनुसार मनुष्य-स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है तो फिर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है? संघर्ष मिटाने के लिए होता है, जो मिटाने की, निराकरण करने की वस्तु है, क्या उसे स्वभाव कहा जा सकता है? संघर्ष यदि मानव इतिहास का एक तथ्य है तो वह उसके दोषों का, उसके विभाव का इतिहास है, उसके स्वभाव का इतिहास नहीं। मानव स्वभाव संघर्ष नहीं, संघर्ष का निराकरण या समत्व की अवस्था है क्योंकि युगों से मानवीय प्रयास उसी के लिए हो रहे हैं। सच्चा मानव इतिहास संघर्ष की कहानी नहीं, संघर्षों के लिए निराकरण की कहानी है। संघर्ष अथवा समत्व से विचलन जीवन में पाये जाते हैं लेकिन वे जीवन के स्वभाव नहीं क्योंकि जीवन की प्रक्रिया उनके समाप्त करने की दिशा में ही प्रयासशील है। समत्व की उपलब्धि ही मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जीवन का साध्य है। समत्व धर्म और विषमता अधर्म है। कामना, आसक्ति, राग-द्वेष, वितर्क आदि सभी जीवन की विषमता, असन्तुलन एवं तनाव की अवस्था को अभिव्यक्त करते हैं, अत: जैन दर्शन में इन्हें अधर्म या पाप माना गया है। इसके विपरीत वासना-शून्य, वितर्कशून्य, निष्काम, अनासक्त, वीतराग अवस्था ही नैतिक शुभ है, धर्म है, वही जीवन का आदर्श है क्योंकि वह समत्व की स्थिति है। जैन दर्शन के अनुसार समत्व एक आध्यात्मिक सन्तुलन है। राग और द्वेष की वृत्तियाँ हमारे चेतन समत्व को भंग करती है। अत: उनसे ऊपर उठकर वीतरागता की अवस्था को प्राप्त कर लेना ही सच्चे समत्व की अवस्था है। वस्तुतः समत्व की उपलब्धि जैन दर्शन और आधुनिक मनोविज्ञान दोनों की दृष्टि से मानव जीवन का साध्य मानी जा सकती है। साधना का लक्ष्य-आत्मपूर्णता - जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष आत्मपूर्णता की अवस्था है और पूर्ण समत्व के लिए आत्मपूर्णता भी आवश्यक है क्योंकि अपूर्णता या अभाव भी एक मानसिक तनाव है। हमारे व्यावहारिक जीवन में हमारे सम्पूर्ण प्रयास हमारी चेतना के ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक शक्तियों के विकास के निमित्त होते हैं। हमारी चेतना सदैव ही इस दिशा में प्रयत्नशील होती है कि वह अपने इन तीन पक्षों की देश कालगत सीमाओं का अतिक्रमण कर सके। व्यक्ति अपनी ज्ञानात्मक, भावात्मक और संकल्पात्मक क्षमता की पूर्णता चाहता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य अपनी सीमितता और अपूर्णता से छुटकारा पाना चाहता है। वस्तुत: मानव मन की इस स्वाभाविक इच्छा की पूर्ति ही जैन दर्शन में मोक्ष के प्रत्यय के रूप में अभिव्यक्त हुई है। सीमितता और अपूर्णता, जीवन की वह प्यास है जो पूर्णता के जल से परिशान्त होना चाहती है। हमारी चेतना में जो अपूर्णता का बोध है वह स्वयं ही हमारे अन्तस में निहित पूर्णता की चाह का संकेत भी है। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले का कथन 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80