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तभी धार्मिकता का स्त्रोत अन्दर से प्रवाहित होता है। तीर्थंकरों, अर्हंतों और बुद्धों ने जब लोक-पीड़ा की यह अनुभूति आत्मनिष्ठ रूप में की, तो वे लोक-कल्याण के लिए सक्रिय बन गये। जब दूसरों की पीड़ा और वेदना हमें अपनी लगती है तब लोक-कल्याण भी दूसरों के लिए न होकर अपने ही लिए हो जाता है। उर्दू शायर अमीर ने कहा है -
खंजर चले किसी पे, तड़फते हैं हम अमीर। सारे जहाँ का दर्द, हमारे जिगर में है ||
जब सारे जहाँ का दर्द किसी के हृदय में समा जाता है तो वह लोक-कल्याण के मंगलमय - मार्ग पर चल पड़ता है। उसका यह चलना बाहरी नहीं होता है । उसके सारे व्यवहार में अन्तश्चेतना काम करती है और यही अन्तश्चेतना धार्मिकता का मूल उत्स (Essence) है, इसे ही दायित्व बोध की सामाजिक चेतना कहा जाता है । जब यह दायित्व-बोध की सामाजिक चेतना जाग्रत होती है, तो मनुष्य में धार्मिकता प्रकट होती है। दूसरों के प्रति आत्मीयता के भाव का जाग्रत होना ही धार्मिक बनने का सबसे पहला उपक्रम है।
यदि हमारे जीवन में दूसरों की पीड़ा, दूसरों का दर्द अपना नहीं बना है तो हमें यह निश्चित ही समझ लेना चाहिए कि हममें धर्म का अवतरण नहीं हुआ है। दूसरों को पीड़ा की आत्मनिष्ठ अनुभूति से जाग्रत दायित्व - बोध ही अन्तश्चेतना के बिना सारे धार्मिक क्रिया-काण्ड, पाखण्ड या ढोंग हैं। उनका धार्मिकता से दूर का रिश्ता नहीं है। जैन धर्म में सम्यक् - दर्शन जो कि धार्मिकता की आधार भूमि है - के जो पाँच अंग माने गये है, उनमें समभाव और अनुकम्पा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। सामाजिक दृष्टि से समभाव का अर्थ है, दूसरों को अपने समान समझना। क्योंकि अहिंसा एवं लोककल्याण की अन्तश्चेतना का उद्भव इसी आधार पर होता है । आचारांग सूत्र में कहा गया है कि “जिस प्रकार मैं जीना चाहता हूँ, मरना नहीं चाहता हूँ उसी प्रकार संसार के सभी प्राणी जीवन के इच्छुक हैं और मृत्यु से भयभीत हैं, जिस प्रकार मैं सुख की प्राप्ति चाहता हूँ और दुःख से बचना चाहता हूँ उसी प्रकार विश्व के सभी प्राणी सुख के इच्छुक हैं और दुःख से दूर रहना चाहते हैं।” यही वह दृष्टि है जिस पर अहिंसा का, धर्म का और नैतिकता का विकास होता है।
जब तक दूसरों के प्रति हमारे मन में समभाव - समानता का भाव, जाग्रत नहीं होता, अनुकम्पा नहीं आती अर्थात् उनकी पीड़ा नहीं बनती तब तक सम्यक् दर्शन का उदय भी नहीं होता, जीवन में धर्म का अवतरण नहीं होता। असर लखनवी का यह निम्न शेर इस सम्बन्ध में कितना मौजूं है -
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ईमां ग़लत उसूल ग़लत, इदुआ गलत। इंसां की दिलदिही, अगर इंसां न कर सके।
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