Book Title: Dharma ka Marm
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 32
________________ यह बात बहुत स्पष्ट है कि जो व्यक्ति अपने प्रत्येक आचरण को करने के पहले तौलेगा, उसके हिताहित का विचार करेगा वह कभी भी दुराचरण, अधर्म और अनैतिकता की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। इसलिए हम कह सकते हैं कि विवेकशील होना यह मनुष्य का एक महत्त्वपूर्ण गुण है और जिस सीमा तक उसमें इस गुण का विकास हुआ है उसी सीमा तक उसमें धार्मिकता है। वस्तुतः जहां जीवन में विवेकशीलता होगी वहां धर्म के नाम पर पनपने वाले छलछद्म अंधश्रद्धा तथा ढोंग और आडंबर अपने आप ही समाप्त हो जाएंगे। यदि हमें धार्मिक होना है तो हमें सबसे पहले विवेकी बनना होगा। जो व्यक्ति सजग नहीं है, जो अपने आचरण और व्यवहार के हिताहित का विचार नहीं करता है वह कदापि धार्मिक नहीं कहा जा सकता। जहां भी व्यक्ति में सजगता और विचारशीलता का अभाव है वहीं अधर्म की संभावनाएं है। यदि हम आत्मचेतनता को सम्यक्दर्शन कहे तो विवेकशीलता को सम्यक्ज्ञान कहा जा सकता है । जब हमारे आचरण के साथ आत्मचेतनता और विवेकशीलता जुड़ेगी तभी हमारा आचरण धार्मिक बनेगा । विवेक एक ऐसा तत्व है जो प्रत्येक आचार और व्यवहार का देश, काल और परिस्थिति के संदर्भ में सम्यक् मूल्यांकन करता है। विवेक व्यक्ति की मूल्यांकन की क्षमता का परिचायक है। विवेक एक ऐसी क्षमता है जो सम्पूर्ण परिस्थिति को दृष्टि में रखकर आचरण के परिणामों का निष्पक्ष मूल्यांकन करती है। जीवन में जब विवेक का विकास होता है तो दूसरों के दुःख और पीड़ा का आत्मवत् दृष्टि से मूल्यांकन होता है। स्वार्थवृत्ति क्षीण होने लगती है, समता का विकास होता है और जीवन में धर्म का प्रकटन होता है। इस प्रकार विवेक धर्म और धार्मिकता का आवश्यक लक्षण है। धर्म और धार्मिकता का विकास विवेक की भूमि पर ही सम्भव है, अतः विवेक धर्म है। आप धार्मिक हैं या नहीं ? इसकी सीधी और साफ पहचान यही है कि आप किसी क्रिया को करने के पूर्व उसके परिणामों पर सम्यक् रूप से विचार करते हैं? क्या आप अपने हितों और दूसरों के हितों का समान रूप से मूल्यांकन करते है ? यदि इन प्रश्नों का उत्तर सकारात्मक है तो निश्चय ही आप धार्मिक है। विवेक के आलोक में विकसित आत्मवत् दृष्टि ही धर्म और धार्मिकता का आधार है। मनुष्य और पशु में तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण अन्तर इस बात को लेकर है कि मनुष्य में संयम की शक्ति है, वह अपने आचार और व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है। यदि हम पशु का जीवन देखें तो हमें लगेगा कि वे एक प्राकृतिक जीवन जीते हैं। पशु तभी खाता है जब भूखा होता है। किन्तु पशु के लिए यह संभव नहीं है कि भूखा होने पर खाद्य सामग्री की उपस्थिति में वह उसे न खावे । किन्तु मनुष्य के आचरण की एक विशेषता है, वह भूखा होते हुए भी और खाद्य सामग्री के उपलब्ध होते हुए भी भोजन करने से इन्कार कर देगा, दूसरी ओर मनुष्य के लिए यह भी संभव है कि भरपेट 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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