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आधारों से हम अलग कर सकते हैं वे है - आत्मचेतना, विवेकशीलता और आत्मसंयम। मनुष्य के अलावा दूसरे प्राणियों में इन गुणों का अभाव देखा जाता है। मनुष्य न केवल चेतन है, अपितु आत्मचेतन है, उसकी विशेषता यह है कि उसे अपने ज्ञान की, अपनी अनुभूति को अथवा अपने भावावेशों की भी चेतना होती है। मनुष्य जब क्रोध या काम की भाव-दशा में होता है तब भी वह यह जानता है कि मुझे क्रोध हो रहा है या काम सता रहा है। पशु को क्रोध होता है किन्तु वह यह नहीं जानता कि मैं क्रोध में हूँ। उसका व्यवहार काम से प्रेरित होता है किन्तु वह यह नहीं जानता है कि काम मेरे व्यवहार को प्रेरित कर रहा है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से पशु का व्यवहार मात्र मूलप्रवृत्यात्मक (Instinctive) है, वह अंध प्रेरणा मात्र है, किन्तु मनुष्य का जीवन प्रेरणा से चालित न होकर विचार या विवेक से प्रेरित होता है। उसमें आत्मचेतनता है।
मनुष्य और पशु में सबसे महत्त्वपूर्ण अंतर आत्म-चेतनता के संबंध में है। जहाँ भी व्यवहार और आचरण मात्र मूल प्रवृत्ति या अन्ध प्रेरणा से चालित होता है व हाँ मनुष्यत्व नहीं, पशुत्व ही प्रधान है, ऐसा मानना चाहिये। मनुष्य की मनुष्यता इसी में है कि अपने व्यवहार और आचरण के प्रति उसमें आत्मचेतनता या सजगता रही हुई हो। यही सजगता उसे पशुत्व से पृथक् करती है। मनुष्य की ही यह विशेषता है कि वह अपने विचारों, अपनी भावनाओं और अपने व्यवहार का द्रष्टा या साक्षी है। उसमें ही यह क्षमता रही हुई है कि कर्ता और द्रष्टा दोनों की भूमिकाओं में अपने को रख सकता है। वह अभिनेता और दर्शक दोनों ही है। उसका हित इसी में है कि वह अभिनय करके भी अपने दर्शक होने की भूमिका को नहीं भूले। यदि उसमें यह आत्मचेतनता अथवा द्रष्टा-भाव या साक्षी-भाव नहीं रहता है तो हम यह कह सकते हैं कि उसमें मनुष्यता की अपेक्षा पशुता ही अधिक है। मनुष्य में परमात्मा और पशु दोनों ही उपस्थित है। वह जितना आत्मचेतन या अपने प्रति सजग बनता है, उसमें उतना ही परमात्मा का प्रकटन होता है और जितना असावधान रहता है, भावना और वासनाओं के अन्ध प्रवाह में बहता है, पशुता के निकट होता है। जो हमें परमात्मा के निकट ले जाता है वही धर्म है और जो पशता के निकट ले जाता है वही अधर्म है। इस आधार पर हम यह कह सकते है कि एक मनुष्य के रूप में आत्म-चेतनता मनुष्य का वास्तविक धर्म है। इसी आत्म-चेतनता को ही शास्त्रों में अप्रमाद कहा गया है। मनुष्य जिस सीमा तक आत्मचेतन है, अपने ही विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का दर्शक है उसी सीमा तक वह मनुष्य है, धार्मिक है क्योंकि यह आत्मचेतन होना या आत्मदृष्टा होना ऐसा आधार है जिसे मानवीय विवेक और सदाचरण का विकास संभव है। बीमारी से छुटकारा पाने के लिए पहले उसी बीमारी के रूप में देखना और जानना जरूरी है। यही आत्म-चेतनता
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