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प्रस्तावना
.३५ कवि ने १३ प्रकार के विभिन्न छन्दों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र का वर्णन करके यह बतलाया है कि सभी भव्य जनों को वीतराग भाव जागृत करने के लिए त्रिरत्नों का पालन करना आवश्यक है क्योंकि त्रिरत्न ही मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रथम सोपान हैं। इसके पालन के बिना मनुष्य वैराग्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता। उक्त दस प्रकार का सम्यक्त्व निम्नप्रकार का है
(१) आज्ञा, (२) मार्ग, (३) उपदेश, (४) सूत्र, (५) बीज, (६) संक्षेप (७) विस्तार (८) अर्थ, (९) अवगाढ़ एवं (१०) परमावगाढ़। सम्यक्त्व के उक्त दस प्रकार व्यक्ति की रुचि के भेद से माने गये हैं।
सम्यक्त्व के प्रकाश के कारण जीव की संसार के परिभ्रमण से अरुचि हो जाती है। एक बार सम्यक्त्व हो जाने पर वह संसार-दशा में अर्द्धपुद्गल परावर्तनकाल से अधिक नहीं रहता। यद्यपि वह भी अनन्तकाल है, तथापि सीमित है। अतः सम्यक्त्वी जीव शीघ्र ही निर्वाण का भागी हो जाता है।
(२/४) द्वादसानुभावना
कवि ने ४८ दोहरा-छन्दों में उक्त रचना की है। कवि की द्वादशभावनाओं का क्रम वह नहीं है, जो आचार्य कुन्दकुन्द, स्वामीकार्तिकेय एवं उमास्वाति की भावनाओं में पाया जाता है। कवि ने संवर-भावना के बाद बोधि-दुर्लभ और लोकभावना का विवेचन किया है, तत्पश्चात् निर्जरा और धर्म-भावना को वर्णन क्रम में रखा है।
कवि को जीवन की क्षणभंगुरता एवं अपूर्णता की गम्भीर अनुभूति थी, इसलिए उसने विश्व की वेदना का अनुभव तत्व चिन्तन एवं आत्म-मनन का विश्लेषण करते हुए आत्म-तत्व का दिग्दर्शन कराया है।
प्रस्तुत रचना में उसकी दृष्टि केवल आत्मनिष्ठ न होकर लोकहित से भी परिपूर्ण है। कवि ने बारह भावनाओं के माध्यम से मानव-मन की शुद्धि पर बल देते हुए एवं भौतिकवाद की विगर्हणा करते हुए बतलाया है कि मोह ही एक ऐसा नशा है, जो मानव की बाह्य प्रवृत्तियों को जागृत कर देता है और वह स्वयं ही कर्मकालुष्य में जकड़ जाता है एवं सुख-शान्ति से वंचित हो जाता है। कवि के अनुसार शान्ति प्राप्त करने का एक ही साधन है- समतारस। इस समतारस को प्राप्त करके ही आन्तरिक सत्यता को जाना जा सकता है। इसलिए कवि ने बाह्य जगत् के स्थान पर आत्मजगत् के सौन्दर्य का इस प्रकार चित्रण किया है, जिससे अन्तर का ज्ञान
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