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देवीदास-विलास सिव सन्मुष कह गयौ ध्यान किहि परसु धरे पिन। कहा रहित तन तासु देखि जग कयौ कहा जिन।। को करत सेव जब जीति तिनि चार घातिया कर्म ठग।
श्री नेमिनाथ रागादि हनि भोजनादि मन रोधि खग।। जोग., २/११/१ (३) तेईसा अछिरचेतनी
२३ वर्ण वाले सवैया छन्द को कवि ने तेइसा के नाम से अभिहित किया है। यहां “अछिर" शब्द का अर्थ 'अक्षर' है और लक्षणा से उसका 'शास्त्र' या 'ग्रन्थ' अर्थ में ग्रहण किया गया है। कवि ने अक्षर-ज्ञान अथवा शास्त्रज्ञान के प्रति मनुष्यों के व्यामोह को चेतावनी दी है, क्योंकि शास्त्रार्थ अथवा वाद-विवाद के द्वारा कलुषता उत्पन्न होती है, जो मानव-समाज के लिए घातक है। इसलिए कवि ने मनुष्यों को चेतावनी देते हुए कहा है कि अक्षरों (शास्त्रों) में ज्ञान नहीं है, ज्ञान तो तुम्हारी त्रिगुणात्मक आत्मा में ही है, उसी को प्राप्त करने का प्रयत्न करो। उसीसे महासुख की प्राप्ति होगी। जैसे
"अछिर को कह चेतत मूरिख अछिर में कह ग्यान धरे हैं। सो त्रगुनातम आतम नित्य महासुखकंद अनंद भरे हैं।।'' (जोग. २/११/.२२) मानु मले मद नाषि लियो पद मोख लखे धनु नैन खुलाया।। जोगा. २/११/२१
अंतर नांहि बसे तन बीच नगीच दिपै निज खोजु हिया रे।। जोग., २/११/२३ (४) गंगोदक-छन्द
छन्दशास्त्र के अनुसार गंगोदक-छन्द २४ वर्ण का होता है, जिसमें ८ रगण होते हैं। लेकिन इस ग्रन्थ में कवि ने जिस गंगोदक-छन्द में रचना की है, उसके प्रत्येक चरण में ४० मात्राएँ हैं एवं अन्त में गुरु है। आचार्य केशव ने छन्दशास्त्र में बताए गए नियम के अनुसार ही इसे अपनाया है। इस छंद की संख्या ९ है। उदाहरण
जुवा थे नहीं पाप है और दीरघ सबै पाप हैं ते जुवा मैं बसे हैं। सप्त., २/२/२ (५) छप्पय-सर्वलघु
बुद्धिबाउनी नामक रचना में कवि ने एक ऐसे छन्द की रचना की है, जिसके सभी वर्ण लघु हैं। उसका नाम उन्होंने छप्पय-सर्वलघु दिया है। यह छन्द कवि १. दे. केशव., पृ. ३४७
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