Book Title: Devidas Vilas
Author(s): Vidyavati Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 333
________________ ३०५ चतुर्विशंतिजिन एवं अन्य पूजा-साहित्य-खण्ड तिनके न विस्मय अरति चिन्ता, क्षुधादोष न व्यापहीं। तिनके सु ज्ञान मझार ज्ञेयाकार आप सु आपहीं। हनि. ।।६।। ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनप्रतिमाग्रे क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा। तिनके सु वेद विकार नाहीं सप्त धातु बिना दिपैं। तन परम औदारिक सु देखत कोटि रविशशि छवि छिपैं। हनि. ।।७।। ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनप्रतिमाग्रे मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा। तिनके सुशिर सुरपति हरष कर चँवर चौसठ ढोरहीं। तिनके सुअतिशय सरस चौतिस सकल जनमन बोरहीं। हनि.।।८।। ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनप्रतिमागे अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा। तिनके सु आगु अशोक तरूवर, पहुप तरू वरषावहीं। तिनकी सु वानी खिरत भविजन सुनत सब सुख पावहीं। हनि.।।९।। ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथथजिनप्रतिमाये मोक्षप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा। शोभित सु भामण्डल सु आसन, महा अति छवि छाजहीं। तसु भाल पर धरि छत्र सुरपति शब्द दुंदुभि बाजहीं। हनि.।।१०।। ॐ ह्रीं श्रीअरहनाथजिनप्रतिमाये अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। गीतिका हम निरख जिन प्रतिविम्ब पूजत त्रिविध कर गुण थापना। तिनके न कारज काज निज कल्याण हेत सु आपना।। जैसे किसान करै जु खेती नाँहि नरपति कारनै। अपनौ सु निज परिवार पालन कौं सु कारज सारनै।।११।। ॐ ह्रीं अरहनाथजिनप्रतिमाग्रे पूर्णर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। (जाप्य १०८ बार - ॐ ह्रीं अरहनाथाय नमः) जयमाल दोहा अरहनाथ अविचल भये हनि अरि कर्म कराल। मति माफिक तिनकी कहौं भाषा कर जयमाल।।१२।। पद्धडी हथिनापुर नग्र महा अनूप, गुणवन्त सुदर्शन नाम भूप। मित्रा देवी जिसका सु नाम, तिन पटतर और नहीं सुनाम।।१३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394