Book Title: Devidas Vilas
Author(s): Vidyavati Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 361
________________ सेवत श्री निरग्रंथ गुरु अरु अरहन्त सुदेव । पठत सुनत सिद्धन्त श्रुत सदाकाल स्वयमेव । । ६ ।। चतुर्विशंतिजिन- साहित्य-खण्ड दोहा तुक अक्षर घटि बढ़ि सबद अरु अनर्थ जो होई । अल्पमति कवि पर क्षमा करि धरियो बुध सोई । । ७।। परिशिष्ट खण्ड ध्यातव्य्य प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ पद्याशों को अगले दो पृष्ठों में परिशिष्ट में सुरक्षित कर दिया गया है। इसका मूल कारण यह है कि वे कवि देवीदास द्वारा लिखित प्रतीत नहीं होते क्योंकि पदान्त में देवीदास ने अपना नाम अंकित नहीं किया है। उनकी भाषा एवं शैली का भी कवि की रचनाओं से मेल नहीं बैठता । प्रथम पद किसी जादौराइ (यदुराय) द्वारा लिखित है जैसा कि उस पद की अन्तिम पंक्ति से विदित होता है। उक्त पदों को प्रकाशित करना इसलिए आवश्यक है कि वे अद्यावधि अज्ञात रहे हैं और आगे चलकर भी अज्ञातावस्था में ही रहकर कहीं नष्ट-भ्रष्ट न हो जायँ इसी कारण उन्हें देवीदास - साहित्य के साथ ग्रथित होने के कारण यहाँ परिशिष्ट में प्रस्तुत किया जा रहा है स्तुति - पद १. जूववरा* - पद नौ जिनदेव सदा चरण कमल तैरे । रिषभ अजित संभव अभिनन्दन केरे । । सुमत पदम श्री सुपार्स चंदाप्रभ तेरे । प्रनमौं । । १॥ Jain Education International ३३३ १. इति श्रीवर्तमान जिनपूजाभाषा देवीदास कृत सम्पूर्ण समाप्त संवत् १८२२ वर्षे आस्विन सुदी ३ भौमवासरे शुभं भवतु । लिखितं स्वहस्तां स्वयं पठनार्थं । पढ़त सुनत मंगल होइ । लिखी गांव दुगौडे। अथ प्रभावना अंगकारण निभिलास । देवीदास - विलास में इसका शीर्षक "जूववरा" दिया गया है। जिसका अर्थ स्पष्ट नहीं है। बहुत सम्भव है कि उससे कवि का तात्पर्य तीर्थकरों के “युवराज- पद" से हो ? यह पद्य किसी जादौराइ (यदुराज) नामक कवि का है, जिसका संग्रह उक्त रचना में कर लिया गया प्रतीत होता है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394