Book Title: Devidas Vilas
Author(s): Vidyavati Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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३०२
देवीदास-विलास चूरणकरि खेवो पावकमें उरधर करि निर्मोह।।
सरधानी होकर पूजिये। श्रीकुन्थनाथ ।।८।। ॐ ह्रीं श्रीकुन्थनाथजिनचरणाग्रेषु अष्टकर्मदहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
फल फासू वादाम सुपारी आदि अवीघ अनूप। परख प्रछाल सलिल धारासों सुरपति पुन नर भूप।।
सरधानी होकर पूजिये। श्रीकुन्थनाथ ।।९।। ॐ ह्रीं श्रीकुन्थनाथजिनचरणाग्रे मोक्षफलप्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन चाँवर फूलनकी माल अवर नैवेद्य। दीप धूप फल अर्घ बनायो प्रगटत निज-परभेद।।
सरधानी होकर पूजिये। श्रीकुन्थनाथ ।।१०।। ॐ ह्रीं श्रीकुन्थनाथजिनचरणाग्रे अनर्घ्यपदप्राप्ताय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
गीतिका हम निख जिन प्रतिबिम्ब पूजत त्रिविध कर गुण थापना। तिनके न कारज काज निज कल्याण हेत सु आपना।। जैसे किसान करै सु खेती नाहिं नरपति कारनैं। अपनौं सु निज परिवार पालन को जु कारज सारनैं।।११।।
पूणार्घ जयमाल
दोहा कुन्थनाथ जगमैं सबै जीवनके रखवाल। मति माफिक तिनिकी कहौं भाषा करि जयमाल।।१२।।
पद्धड़ी हथनापुर अति उत्तम सुथान, तहँ सूर्यसेन राजा प्रधान। देवी तिन श्रीमति गुण गरिष्ठ, तिनि पटतर नार न अवर वरिष्ठ।।१३।। सर्वार्थसिद्धि आगम सुलेख, तसु गर्भ विष उपजे जु देव। सावन वदि वर दशमी सुवार समझो जिन भव गर्भावतार।।१४।। वैसाख सुदी परमा सुलेख, कृतिका- नक्षत्र जन्माभिषेक। घट पंच-सहस्त्र सुलक्षएक, आयुष भुगती विधिसौं अनेक।।१५।।
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