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प्रस्तावना
(५) नैवेद्य- जन्म-मरण से व्याप्त इस संसार में क्षुधा का रोग सबसे कठिन माना गया है। प्राणी क्षुधा-रोग की शान्ति के लिए क्या-क्या नहीं करता? समस्त विश्व में आज जो भी अन्याय, अत्याचार एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला है, वह केवल क्षधा-रोग की शान्ति के लिए। इसलिए यदि इस रोग को नष्ट कर दिया जाय, तब तो प्राणी का उद्धार ही हो जाए। अतः आराध्य के गुणानुवाद के प्रसंग में उक्त रोग के शमन के लिए नैवेद्य का समर्पण आवश्यक बतलाया गया है। उसका मन्त्र निम्न प्रकार है- "क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वापामीति स्वाहा।"
(६) दीप- आत्म-जागृति के लिए भेद-विज्ञान का ज्ञान अर्थात् शरीर एवं आत्मा की भिन्नाभिन्नता का ज्ञान नितान्त आवश्यक है, इस ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो? इसके लिए सम्यक् ज्ञान की महती आवश्यकता होती है, जो कठोर संयम, साधना एवं अन्तर्बाह्य-तपस्या से ही सम्भव है।
ई. पू. द्वि. सदी के जैनकुलावंस विश्वविख्यात जैन-सम्राट कलिंगनरेश खारवेल को कौन नहीं जानता, जिसका हाथीगुम्फा-शिलालेख भारतीय इतिहास के अन्धकारयुगीन इतिहास को प्रकाशित करने वाला है। उसने लिखा है कि "प्रशासक रहते हुए भी मुझे जैनाचार्यों के सम्पर्क से ऐसी दृष्टि मिली है, जिसने शरीर एवं आत्मा के भेद को स्पष्ट कर दिया है और मेरी अन्तरात्मा ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो गई है। कहने का तात्पर्य यह कि निसर्गज अथवा अधिगमज ज्ञान रूपी दीपक से आत्मा जब मोहान्धकार का विनाश करके आलोकित हो जाती है, तो उसे प्रशस्त मार्ग स्वयं दिखलाई देने लगता है। इसलिए हमारे आचार्यों ने उस ज्ञान-ज्योति को जागृत करने के लिए निम्न मन्त्र का सन्देश दिया-“मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।"
(७) धूप- पूर्वाचार्यों ने गहन साधना एवं तपस्या के आधार पर यह स्पष्ट देखा-परखा है कि आत्मा अजर, अमर एवं निष्कलंक है। किन्तु ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्मों के कारण वह समल हो जाती है और यही कारण है कि वह चौरासी लाख योनियों में निरन्तर भटकती रहती है। इन दुष्ट कर्मों से मुक्ति हेतु आचार्यों ने यह मनोवैज्ञानिक विधान किया कि निर्धूम अग्नि में सुगन्धित एवं उत्कृष्ट कोटि की धूप के क्षेपण से अष्ट-कर्मों का नाश हो जाता है और आत्मा निष्कलंक होकर मोक्षाभिमुखी हो जाती है।
__ आजकल चारों ओर से बार-बार यही सुनाई देता है कि वायुमण्डल एवं जलमण्डल प्रदूषित हो गया है, जिससे अनेक प्रकार के विषैले कीटाणु फैल रहे
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