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प्रस्तावना
६५ हरत कुविघ्न जैसे हरत समीर घन विस्व तत्व लखिवे कौं दीपक समान हैं।
बुद्धि., २/१६/२४ व्रतमूल संजिम सकंधबंध्यौ जम नीयम उभै जल सीच सील साखा बृद्धि भयौ है। समिति सुभार चढयौ बढयौ गुप्ति परिवार पहुप सुगंधी गुन तप-पत्र छयौ है, मुक्ति फल दाई जाकै, दया छाह छाई भऔ भव तप ताई भव्य जाई ठौर लयौ है। गयौ अघ तेज भयौ सुगुन प्रकास ऐसौ चरण सुवृक्ष ताहि देवीदास नयौ है।
बुद्धि., २/१६२६ कवि ने व्यापार के रूपक द्वारा शरीर और आत्मा की स्थिति को स्पष्ट करते हुए आत्मा को सम्बोधित किया है और कहा है कि उसे भेद-ज्ञान प्राप्त कर लेने की आवश्यकता है, बिना भेद-ज्ञान के यह आत्मा अनन्त काल तक आवागमन के चक्कर में फँसी रहेगी। वे आत्मा को “हस" शब्द से सम्बोधित करते हुए कहते हैं
"अरे हंसराइ जैसी कहा तोहि सूझि परी पुंजी लै पराई बंजु कीनौं महा खोटौ हैं। खोटौ बंजु किए तौको कैसें के प्रसिद्धि होई नफा मूरि थे जहाँ सिवाहि व्याज
चोटौ है। बेहुरे सौं बंध्यौ पराधीन हो जगत्र माहि देह कोठरी मैं तूं अनादि को अगोटौ हैं। मेरी कही मांनु खोजु आपनौ प्रताप आप तेरी एक समैं की कमाई को न टोटौ हैं।
जोग., २/११/१३
अनन्वय
कवि ने ज्ञान और ज्ञानी के वर्णन-प्रसंग में अनन्वय अलंकार के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि संसार में ऐसी कोई भी वस्तु निर्मित नहीं है, जो ज्ञान एवं ज्ञानी की समता कर सके, क्योंकि दोनों ही व्यक्ति की जीवन-साधना, त्याग-तपस्या एवं तज्जन्य अनुभूति से सम्बन्धित है। इसी तथ्य का निरूपण उन्होंने निम्न पद्य में किया है। यथाज्ञानी सौ न और पै न और सौ सुग्यानवंत ग्यानवंत कै क्रिया विचित्र एक
जान की। जानी एक ठौर को पिछानी है सु और कौ सु और कौ अजानी है न जानै
एक ठान की।। ठान-ठान और पैन और ठान-ठान कोई रीति है पिछानिवे की वाही के प्रमान की।
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