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प्रस्तावना
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(१०) समस्त पृथिवी का धान्यादि से युक्त हो जाना। (११) समस्त आकाश का निरभ्र एवं निर्मल रहना। (१२) आकाश में देवों द्वारा जय-जय ध्वनि का होते रहना। (१३) तीर्थंकर प्रभु के आगे धर्मचक्र चलना। एवं,
(१४) अष्टमंगल-द्रव्यों का तीर्थंकर के सामने रहना। (८/१-२५) चतुर्विंशति-जिनपूजा वर्गीकरण
श्रमण-संस्कृति में चतुर्विंशति तीर्थंकर रूप आराध्य देवता के गुण-स्तवन का विशेष महत्व है। प्राचीन आचार्यों ने उसे तीन भागों में विभक्त किया है
(१) सामान्यतया त्रिकाल-स्तवन
जिसमें प्रातः, मध्यान्ह एवं सन्ध्या काल में मन, वचन एवं काय की पवित्रता पूर्वक आराध्य के गुणों का स्तवन एवं गुणानुवाद किया जाता है। दूसरे शब्दों में इसे सामायिक भी कहते हैं।
(२) भाव-पूजा
प्रस्तुति पद्धति में मन, वचन एवं काय की शुद्धि पूर्वक आराध्य के गुणों की स्तुति की जाती है। इसमें यद्यपि विहित अष्ट-द्रव्यों का भी स्मरण किया जाता है, किन्तु उनका साक्षात् समर्पण नहीं होता। एवं
(३) अष्टद्रव्य पूजा-उपासना-पद्धति
यह पद्धति अष्ट द्रव्य-पूजा के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें जिन आठ-द्रव्यों से २४ तीर्थंकरों की पूजा-स्तुति की जाती है, वे निम्न प्रकार हैं
(१) जल, (२) चन्दन, (३) अक्षत (४) पुष्प, (५) नैवेद्य, (६) दीप, (७) धूप एवं (८) फल।
इन अष्ट द्रव्यों पर यदि विचार किया जाय, तो उनका विश्लेषण बहुत ही मनोरंजक, आह्लादकारी एवं मनोवैज्ञानिक सिद्ध होता है। वस्तुतः ये आठ द्रव्य वही हैं, जो मानव-समाज के दैनिक जीवन में अत्यावश्यक हैं एवं सर्वसुलभ भी। इनकी अपनी मनोवैज्ञानिकता भी है। संक्षिप्त विश्लेषण निम्न प्रकार है :
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