Book Title: Devananda Mahakavya
Author(s): Meghvijay, Bechardas Doshi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 17
________________ देवानन्दमहाकाव्य । पट्टधर श्रीविजयप्रभसूरिजीने उनको वाचक पदवी देकर उन्हें उपाध्याय बनाये थे । इतनी हकीकत मेघविजयजीके बनाए हुए सेब ग्रन्थोंकी अंतिम प्रशस्तिमें मिलती है। ग्रन्थकार श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथके बडे 'भक्त मालूम होते हैं। यह बात उनकी कृतियोंसे मालूम होती है । ग्रन्थके आरंभमें और ग्रन्थान्तर्गतप्रकरणों में भी उन्होंने जहां तहां 'एँ' का निर्देश किया है इससे मालूम होता है कि उनका श्रद्धामंत्र 'एँ'.बीजमूलक है । प्रस्तुत काव्यकी आदिमें श्लोक नवमेमें 'सिद्धि' शब्दका निर्देश करके ग्रन्थकारने अपने प्रगुरु मुनिसिद्धिविजयजीका भी स्मरण किया है। और यह बात 'सिद्धि' शब्दके टिप्पणमें स्पष्ट भी की है। ग्रन्थकारको श्रीविजयप्रभसूरिके द्वारा उपाध्याय पद मिला था। १७२७ में प्रस्तुत समस्यापूर्तिकी रचना की। १७४७ में मातृकाप्रसादग्रंथका निर्माण किया और १७५७ में चंद्रप्रभा नामक व्याकरणविषयक ग्रंथ बनाया। तथा १७६०' में सप्तसंधानमहाकाव्यकी रचना की। इससे ग्रन्थकारका समय १८ वीं शताब्दीमें होना निश्चित है। ग्रंथकार व्याकरणशास्त्र, ज्योतिःशास्त्र और अध्यात्मशास्त्रके अच्छे विद्वान् थे। साहित्य और अलंकारके विद्वान् तो थे ही । उनकी अनेक कृतियोंसे उनका तत्तविषयक पांडित्य प्रकट होता है। ग्रन्थकारनिर्मित ग्रंथसूचि इस प्रकार है १ "जयतु विजयदेवश्रीगुरोः पट्टलक्ष्मी-प्रभुरिह विजयादिः श्रीप्रभः सूरिशक्रः ॥ तत्सेवासक्तचेता अनवरततया प्राप्तलक्ष्मीर्विशिष्य शिष्यः श्रीमत्कृपादेर्विजयपदभृतः सत्कवेर्वाचकश्रीः । मेघः पद्माप्रसादाद् विशदमतिजुषां श्राव्यकाव्यं चकार ॥" -देवानन्दमहाकाव्यप्रशस्ति । "तदनु गणधरालीपूर्व दिग्भानुमाली विजयपदमपूर्व हीरपूर्वं दधानः ॥ ६६ ॥ कनकविजयशर्माऽस्यान्तिषत् प्रौढधर्मा शुचितरवरशीलः शीलनामा द्वितीयः । कमलविजयधीरः सिद्धिसंसिद्धितीरस्तदनुज इह रेजे वाचकश्रीशरीरः ॥ ६७ ॥ चारित्रशब्दाद् विजयाभिधानत्रयः सगर्भा धृतशीलधर्माः । एषां विनेयाः कवयः कृपाद्याः पद्यास्वरूपाः समयाम्बुराशौ ॥६८॥ तत्पादाम्बुजभृङ्गमेघविजयः०-"। -श्रीशांतिनाथचरित्र। वंशवल्लीहीरविजय कनकविजय शीलविजय कमलविजय - सिद्धि विजय - चारित्रविजय कृपाविजय मेघविजय २ देवानन्दमहाकाव्य, सर्ग चतुर्थ-पञ्चम-षष्ठ और सप्तमका प्रारंभ। देखो पृ. ३९, ४९, ५७, ६९ । ३ देवानन्दमहाकाव्य, देखो पृ. ५७, ६९ । ४ “खसाध्यसिद्धिं श्रयिताऽस्मि निःश्रमम्”। “सिद्धिम् इति च श्रीसिद्धिविजयं श्रयिताऽस्मि।" -देवानन्दमहाकाव्य, पृ. २ टिप्पण ११॥ ५ "प्राप्तस्फुरद्वाचकख्यातिः श्रीविजयप्रभाख्यभगवत्सूरेस्तपागच्छपात्।" --शांतिनाथचरित्र । ६ "मुनि-नयन-अश्व-इन्दुमिते वर्षे हर्षेण सादडीनगरे। ग्रन्थः पूर्ण: समजनि विजयदशम्यामिति श्रेयः॥" देवानन्दमहाकाव्यप्रशस्ति। ७ "ओं नमः सिद्धमिल्यादेवर्णाम्नायस्य वर्णनम् । चक्रे श्रीमेघविजयोपाध्यायो धर्मसाधनम् ॥" ___ "संवत्सरे अश्व-वार्धि-अश्व-भूमिते पोष उज्वले । श्रीधर्मनगरे ग्रन्थः पूर्ण श्रियमशिश्रियत्॥" -मातृकाप्रसाद । ८ “विजयन्ते ते गुरवः शैल-शर-ऋषि-इन्दुवत्सरे तेषाम् । आदेशाद् देशपतेः स्थितिः कृता राजधान्यन्तः ॥ चातुर्मास्यामस्यां नाम्ना श्रीआगरावराख्यायाम् । नानायोगैरुचितै रचिता चन्द्रप्रभा सुधिया ॥" -चन्द्रप्रभाका प्रांतभाग। ९ "वियद्-रस-मुनि-इन्दूनां प्रमाणात् परिवत्सरे। कृतोऽयमुद्यमः पूर्वाचार्यचर्याप्रतिष्ठितः ॥" -सप्तसंधानमहाकाव्यप्रांतभाग ।

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