Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 68
________________ चौबीस तीर्थंकर शक्ति के गर्व में भरत ने भगवान द्वारा निर्धारित की गयी सारी राज्य-व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है। मैं उसे इस अपराध के लिए क्षमा नहीं करूँगा। मेरे शेष भाइयों की भाँति मैं उसकी अधीनता स्वीकार नहीं कर सकता। मैं उससे युद्ध करने को तत्पर हूँ। उसके अभिमान को चूर-चूर कर दूंगा। बाहुबली का यह विचार जानकर सम्राट भरत को भी क्रोध आया और उसने अपनी विशाल सेना लेकर बाहुबलनी पर आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ। समरांगण में रक्त की सरिताएँ प्रवाहित होने लगीं। इस भयंकर नर-संहार को देखकर बाहुबली का मन विचलित हो उठा। निरीह जनों का यह संहार उसे व्यर्थ प्रतीत होने लगा। उसके करुण हृदय में एक भावना उद्भव हुई कि दो भाइयों के दर्प के लिए क्यों इतना विनाश हो? उसने भरत के समक्ष प्रस्ताव रखा कि सेना को विश्राम करने दिया जाय और हम दोनों द्वन्द्वयुद्ध करें और इसका परिणाम ही दोनों पक्षों को मान्य हो तथा उनकी स्थितियों का निर्धाण करे। प्रस्ताव को भरत ने स्वीकार कर लिया। ___ अब दोनों भाई द्वन्द्वयुद्ध करने लगे। दृष्टियुद्ध, वाग्युद्ध, बाहुयुद्ध और मुष्टियुद्ध में उत्तरोत्तर उत्कृष्ट विजय बाहुबली के पक्ष में रही। भरत पराजित होकर निस्तेज होता जा रहा था। यदि अन्तिम रूप से भी बाहुबली ही विजयी रहता है, तो चक्रवर्ती सम्राट होने का गौरव उसे प्राप्त हो जाता है, भरत को नहीं। बड़ी नाजुक परिस्थिति भरत के समक्ष आ उपस्थित हुई। इसी समय देवताओं ने भरत को चक्रायुध प्रदान किया। पराजय की कुंठा से ग्रस्त भरत ने चक्र से बाहुबली पर प्रहार किया। यह अनीति थी, द्वन्द्वयुद्ध की मर्यादा का उल्लंघन था और इसे बाहुबली सहन न कर सका। परम शक्तिशाली बाहुबली ने इस आयुध को हस्तगत कर उसी से भरत पर प्रहार करने का विचार किया, किन्तु तुरन्त ही संभल गया। सोचा-क्या असार विषयों के उपभोग के लिए मेरा यह अनीतिपूर्ण चरण उचित होगा, सर्वथा नहीं। भरत ने अपने भाई पर ही प्रहार किया था, अत: चक्र कभी बाहुबली की परिक्रमा लगाकर वैसे ही लौट आया। भरत को अपनी इस पराजय पर घोर आत्मग्लानि का अनुभव होने लगा। बाहुबली के जय-जयकार से नभो-मंडल गूंज उठा। भयंकर रोष के आवेश में जब बाहुबली ने भरत पर मुष्टि प्रहार के लिए अपनी भुजा ऊपर उठाई थी, तो सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी थी। सभी दिशाओं से क्षमा क्षमा का स्वर आने लगा। उसकी उठी हुई भुजा उठी ही रह गयी और वह एक क्षण को सोचने लगा कि एक की भूल के उत्तर में दूसरा क्यों भूल करे? क्षमा और प्रेम, शान्ति और अहिंसा हमारे कुल के आदर्श हैं और बाहुबली ने भरत पर प्रहार का अपना विचार त्याग दिया। भरत के मस्तक के स्थान पर उनकी मुष्टि स्वयं अपने ही शिर पर आयी और बाहुबली ने पंचमुष्टि हुँचन कर श्रमण-धर्म स्वीकार कर लिया। दीक्षा ग्रहण करने के लिए बाहुबली भगवान ऋषभदेव के चरणाश्रय में जाना चाहते थे, किन्तु उनका दर्प बाधक बन रहा था। इस हिचक के कारण उनके चरण बढ़ते ही नहीं थे कि संयम और साधना के मार्ग पर उनके 98 छोटे भाई उनसे भी पहले आगे बढ़ गये हैं। साधना जगत् में कुछ अर्जित करलूँ तो उनके पास जाऊँगा-यह सोचकर बाहुबली वन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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