Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 144
________________ 86 चौबीस तीर्थंकर जन्म-वंश उन दिनों हस्तिनापुर राज्य में इक्ष्वाकु वंश के महाराजा सुदर्शन का शासन था। इनकी धर्मपत्नी महारानी महादेवी अत्यन्त धर्म-परायणा एवं शीलवती थी। स्वर्गिक सुखोपभोग की अवधि जब शेष नहीं रही तो मुनि धनपति का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवकर रानी महादेवी के गर्भ में स्थिर हुआ। वह फाल्गुन शुक्ला द्वितीय का दिन था और उसी (गर्भ धारण की) रात्रि को रानी ने 14 शुभ स्वप्नों का दर्शन किया। वह भावी तीर्थंकर की जननी बनने वाली है-यह ज्ञात होने पर रानी महादेवी का मन मुदित हो उठा और इसी सुखी मानसिक दशा के साथ उसने गर्भकाल व्यतीत किया। यथासमय गर्भ की अवधि पूर्ण हुई और महारानी ने मृगशिर शुक्ला दशमी को पुत्र प्रसव किया। नवजात शिशु अत्यन्त तेजस्वी था और अनुपम रूपवान भी। तीर्थंकर के जन्म ले लेने का समाचार पलभर में तीनों ही लोकों में प्रसारित हो गया। सर्वत्र हर्ष ही हर्ष व्याप्त हो गया। कुछ पलों के लिए तो घोर यातना भोग रहे नारकीय जीव भी अपने कष्टों को विस्मृत कर बैठे। 56 दिक्कुमारियों ने आकर माता महादेवी को श्रद्धासहित नाम्कार किया। देवताओं ने भी भगवान का जन्मोत्सव अत्यन्त हर्ष के साथ मनाया। राज-परिवार और प्रजाजन की प्रसन्नता का तो कहना ही क्या? विविध उत्सवों और मंगल-गानों के माध्यम से इन्होंने हार्दिक प्रसन्नता को अभिव्यक्ति दी। जब भगवान गर्भ में थे, तभी माता ने रत्न निर्मित चक्र के अर को देखा था। इसी हेतु से महाराज सुदर्शन ने 'अरहनाथ' नाम से कुमार को पुकारा और वही नाम उसके लिए प्रचलित हुआ। गृहस्थ-जीवन __कुमार अरहनाथ सुखी, आनन्दपूर्ण बाल-जीवन व्यतीत कर जब युवक हुए तो लावण्यवती नृपकन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ। 21 हजार वर्ष की आयु प्राप्ति पर उनका राज्याभिषेक हुआ। महाराजा सुदर्शन ने समस्त राजकीय दायित्व युवराज अरहनाथ को सौंप दिए और स्वयं विरक्त हो गए। महाराज अरहनाथ वंश- परम्परा के अनुकूल ही अतिपराक्रमी, शूरवीर और साहसी थे। अपने राज्यत्वकाल के इक्कीस सहस्र वर्ष व्यतीत हो चुकने पर पूर्व तीर्थंकर की भाँति ही इनकी आयुधशाला में भी चक्ररत्न उदित हुआ। यह इस बात को घोषक था कि महाराजा अरहनाथ को अब दिग्विजय कर चक्रवर्ती सम्राट बनना है। नरेश ने चक्ररत्न का पूवजन किया और चक्र शस्त्रागार छोड़कर अंतरिक्ष में स्थिर हो गया। भूपति ने संकेतानुसार विजय अभियान हेतु सैन्य सजाया और तत्काल प्रयाण किया। इस शैर्य अभियन में महाराज अरहनाथ ससैन्य एक योजन की यात्रा प्रतिदिन किया करते और इस बीच स्थित राज्यों के नृपतियों से अपनी अधीनता स्वीकार कराते चलते। आसिंधु विजय (पूर्व की दिशा में) कर चुकने के पश्चात वे दक्षिण दिशा की ओर उन्मुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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