Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 202
________________ 144 चौबीस तीर्थंकर राजप्रासाद ही क्यों त्यागता ? उन्होंने अनुभव किया कि इस आश्रम में साधना की अपेक्षा साधनों का अधिक महत्व माना जाता है, जो राग उत्पन्न करता है। अत: उन्होंने निश्चय कर लिया कि ऐसे बैराग्य-बाधक स्थल पर मैं नहीं रहूँगा। वे निश्चयानुसार आश्रम त्याग कर चुपचाप विहार कर गए। इसी समय भगवान ने उन 5 प्रतिज्ञाओं को धारण किया जो आज भी सच्चे साधक के लिए आदर्श हैं (1) ईर्ष्या, वैमनस्य का भाव रखने वालों के साथ निवास न करना। (2) साधना के लिए सुविधाजनक, सुरक्षित स्थल का चुनाव नहीं करना। कायोत्सर्ग के भाव के साथ शरीर को प्रकृति के अधीन छोड़ देना। (3) भिक्षा, गवेषणा, मार्ग- शोध और प्रश्नों के उत्तर देने के प्रसंगों के अतिरिक्त सर्वथा मौन रहना। (4) कर-पात्र में ही भोजन ग्रहण करना। (5) अपनी आवश्यकता को पूरा करने के प्रयोजन से किसी गृहस्थ को प्रसन्न करने का प्रयत्न नहीं करना। यक्ष बाधा : अटल निश्चय विचरणशील साधक महावीर स्वामी अस्थिकग्राम में पहुँचे। ग्राम के समीप ही एक प्राचीन और ध्वस्त मंदिर था, जिसमें यक्ष बाधा बनी रहती है-इस आशय का संवाद भगवान को भी प्राप्त हो गया। ग्रामवासियों ने यह सूचनादेते हुए भगवान से अनुरोध किया था कि वे वहाँ विश्राम न करें। वास्तव में वह मन्दिर सुनसान और बड़ा डरावना था। रात्रि में कोई यहाँ रुकता ही नहीं था। यदि कोई दुस्साहस कर बैठता, तो वह जीवित नहीं बच पाता था। भगवान ने तो साधना के लिए सुरक्षित स्थान न चुनने का व्रत धारण किया था। मन में सर्वथा निर्भीक थे ही। अत: उन्होंने उसी मन्दिर को अपना साधना- स्थल बनाया। वे वहाँ खड़े होकर ध्यानस्थ हो गए। ऐसे निडर, साहसी, व्रतपालक और अटल निश्चयी थे-भगवान महावीर स्वामी। रात्रि के घोर अन्धकार में अत्यन्त भीषण अट्टहास उस मन्दिर में गूंजने लगा। भयानक वातावरण वहाँ छा गया, किन्तु भगवान निश्चल ध्यानलीन ही रहे। यक्ष को अपने पराक्रम की यह उपेक्षा असह्य हो उठी। वह क्रूद्ध हो उठा और विकराल हाथी, हिंस्र सिंह, विशालकाय दैत्य, भयंकर विषधर आदि विभिन्न रूप धरकर भगवान को आतंकित करने के प्रयत्न करता रहा। अनेक प्रकार से भगवान को उसने असह्य, घोर कष्ट पहुँचाए। साधना- अटल महावीर तथापि रंचमात्र भी चंचल नहीं हुए। वे अपनी साधना में तो क्या विघ्न पड़ने देते, उन्होंने आह - कराह तक नहीं की। जब सर्वाधिक प्रयत्न करके और अपनी समग्र शक्ति का प्रयोग करके भी यक्ष भगवान को किसी प्रकार कोई हानि नहीं पहुँचा सका, तो वह परास्त होकर लज्जित होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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