Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 203
________________ भगवान महावीर स्वामी 145 लगा। उसने यह विचार भी किया कि सन्त कोई साधारण व्यक्ति नहीं है-महामानव है। यह धारणा बनते ही वह अपनी समस्त हिंसावृत्ति का त्याग कर भगवान के चरणों में नमन करने लगा। भविष्य में किसी को त्रस्त न करने का प्रण लेकर यक्ष ने वहाँ से प्रस्थान किया भगवान वहीं साधनालीन खड़े ही रहे। चण्डकौशिक का उद्धार : अमृत भाव की विजय __ एक और प्रसंग साधक महावीर भगवान के जीवन का है, जो हिंसा पर अहिंसा की विजय का प्रतीक है। एक बार भगवान को कनकखल से श्वेताम्बी पहुँचना था। इस हेतु दो मार्ग थे। एक मार्ग यद्यपि अपेक्षाकृत अधिक लम्बा था, किन्तु उसी का उपयोग किया जाता था और दूसरा मार्ग अत्यन्त लघु होते हुए भी बड़ा भयंकर था। अत: कोई इस मार्ग से यात्रा नहीं करता था। इसमें आगे एक घने वन में भीषण नाग चण्डकौशिक का निवास था जो ‘दृष्टि-विष' सर्प था। मात्र अपनी दृष्टि डालकर ही यह जीवों को डस लिया करता था। इसके भीषण विष की विकरालता के विषय में यह प्रसिद्ध था कि उसकी फूत्कार मात्र से उस वन के सारे जीव-जन्तु तो मर ही गए हैं, सारी वनस्पति भी दग्ध हो गयी है। इस प्रचण्ड नाग का बड़ा भारी आतंक था। भगवान ने श्वेताम्बी जाने के लिए इसी लघु किन्तु अति भयंकर मार्ग को चुना। कनकखलवासियों ने भगवान को इस भयंकर विपक्ति से अवगत कराया और इस मार्ग पर न जाने का आग्रह भी किया किन्तु भगवान का निश्चय तो अटल था। वे इसी मार्ग पर निर्भीकतापूर्वक अग्रसर होते रहे। भयंकर विष को मानों अमृत का प्रवाह पराजित करने को सोत्साह बढ़ रहा हो। भगवान सीधे जाकर चण्डकौशिक की बाँबी पर ही खड़े होकर ध्यानलीन हो गए। कष्ट और संकट को निमंत्रित करने का और कोई उदाहरण इस प्रसंग की समता भला क्या करेगा ? घोर विष को अमृत बना देने की शुभाकांक्षा ही भगवान की अन्त:-प्रेरणा थी, जिसके कारण इस भयप्रद स्थल पर भी वे अचंचल रूप से ध्यानलीन बने रहे। भगवान विष से वातावरण को दूषि करता हुआ चण्डकौशिक भू-गर्भ से बाहर निकल आया और अपने से प्रतिद्वन्द्विता रखने वाले एक मनुष्य को देखकर वह हिंसा के प्रबल भाव से भर गया। मेरी प्रचण्डता से यह भयभीत नहीं हुआ और मेरे निवास स्थान पर ही आकर खड़ा हो गया है-यह देखकर वह बौखला गया और उसने पूर्ण शक्ति के साथ भगवान के चरण पर दंशाघात किया। इस कराल प्रहार से भी भगवान की साधना में कोई व्याघात नहीं आया। अपनी इस प्रथम पराजय से पीड़ित होकर नाग ने तब तो कई स्थलों पर भगवान को डस लिया, किन्तु भगवान की अचंचलता में रंचमात्र भी अन्तर नहीं आया। इस पराभव ने सर्प के आत्मबल को ढहा दिया। वह निर्बल और निस्तेज सिद्ध हो रहा था। यह विष पर अमृत की अनुपम विजय थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224