Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 210
________________ 152 चौबीस तीर्थंकर और प्रभावित होकर दीक्षित हो गया। भगवान के प्रभाव की अति भव्य विजय हुई और प्रथम देशना में ही ग्यारहों दिग्गज पंडित अपने 4400 शिष्यों सहित भगवान के आश्रय में दीक्षित हो गए। प्रभु का अहिंसा-धर्म अब सर्वमान्य हो गया। भगवान ने तीर्थ स्थापना की और इन प्रथम ]] शिष्यों को गणधर की गरिमा प्रदान की (1) इन्द्रभूति गौतम (2) अग्निभूति गौतम (3) वायुभूति गौतम (4) आर्य व्यक्त (5) सुधर्मा (6) मण्डित (7) मौर्यपुत्र (8) अकम्पित (9) अचलभ्राता (10) मेतार्य (11) प्रभास भगवान के केवली हो जाने की शुभ गाथा सुनकर चन्दना भी कौशाम्बी से इस समवसरण में उपस्थित हुई और भगवान से दीक्षा ग्रहण कर ली। उसने साध्वी संघ की प्रथम आर्या होने का गौरव भी प्राप्त किया। केवली चर्या : धर्म-प्रचार केवली बनकर भगवान महावीर स्वामी ने आत्म-कल्याण से ही सन्तोष नहीं कर लिया, न ही धर्मानुशासन व्यवस्था का निर्धारण कर वे पीठाध्यक्ष होकर विश्राम करते रहे। परमानन्द का जो मार्ग उन्हें प्राप्त हो गया था, उनका लक्ष्य तो उसका प्रचार करके सामान्य जन को आत्म-कल्याण का लाभ पहुँचाना था। अत: भगवान ने अपना शेष जीवन धर्मोपदेश में व्यतीत करते हुए जनता का मार्ग-दर्शन करने में व्यतीत किया। लगभग 30 वर्षों तक वे गाँव-गाँव और नगर-नगर में विचरण करते हुए असंख्य जनों को प्रतिबोध रहे। भगवान क्रान्तदर्शी थे। देश-काल की परिस्थितियों का सूक्ष्म ज्ञान उन्हें था उन्होंने अनुभव किया कि तत्कालीन धर्म-क्षेत्र अनेक मत-मतान्तरों में विभक्त और परस्पर कलह- ग्रस्त है। अतिवाद का भयंकर रोग भी इन विभिन्न वर्गों को ग्रस रहा था। भगवान ने ऐसी दशा में अनेकान्तवाद का प्रचार किया। उनके उपदेशों में समन्वय का भाव होता था। कोई भी वस्तु न एकान्त नित्य होती है और न ही एकान्त अनित्य। स्वर्ण एक पदार्थ का नित्य रूप है, विभिन्न आभूषणों के निर्माण द्वारा उसका बाह्य आकार इत्यादि परिवर्तित होता रहता है, तथापि मूलत: भीतर से वह स्वर्ण ही रहता है। आत्मा, पुद्गल आदि की भी यही स्थिति रहती है। मूलत: अपने एक ही स्वरूप का निर्वाह करते हुए भी उनके बाह्य स्वरूप में कतिपय परिवर्तन होते रहते हैं। मात्र इसी कारण अनेकान्तवादी होकर पारस्परिक विरोध रखना अनौचित्यपूर्ण है। वे सत्य पर आग्रह रखते थे और कहते थे कि परम्परा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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