Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 211
________________ भगवान महावीर स्वामी 153 नवीन में से किसी का भी अन्धानुसरण करना व्यर्थ है। जिसे हम सत्य और उचित माने केवल उसी का व्यवहार करें। इन सिद्धांतों से जनता का अनैक्य कम होने लगा और लोग परस्पर समीपतर होने लगे। भगवान के उपदेशों में अहिंसा एवं अपरिग्रह भी मुख्य तत्व थे। सभी धर्मों में हिंसा का निषेध है, तथापि यज्ञ के नाम पर जो पशु-बलि की प्रथा थी, वह व्यापक हिंसा का ही रूप थी। भगवान ने इस हिंसा का खुलकर विरोध किया। उनकी अहिंसा का रूप बड़ा व्यापक था। वे मनुष्य, पशु-पक्षी ही नहीं वनस्पति तक को कष्ट पहुँचाना हिंसा-वृत्ति के अन्तर्गत मानते थे और अहिंसा को वे परम धर्म की संज्ञा देते थे। उनका कथन होता था कि जब हम किसी को प्राण-दान नहीं दे सकते तो प्राणों का हरण करने का अधिकार हमें कैसे मिल सकता है। क्षमा, दया, करुणा आदि की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए हिंसा का जैसा व्यापक विरोध भगवान ने किया था वह मानव इतिहास में अभूतपूर्व है। अपिरिग्रह के सिद्धान्त का प्रचार करके भगवान ने मनुष्य की संग्रह वृत्ति और लोभ का विरोध किया। इसी दोष ने समाज में वर्ग-विषमता और दैन्य की उत्पत्ति की है। प्रभु ने इच्छाओं, लालसाओं और आकांक्षाओं के परिसीमन का प्रभावशाली उपदेश दिया और आवश्यकता से अधिक सामग्री के त्याग की प्रेरणा दी। साथही दीन-हीनों पर भगवान के उपदेश का यह प्रत्यक्ष लाभ हुआ कि ये श्रमशील और कर्म निष्ठ बनने लगे। एक अद्भुत साम्य समाज में स्थापित होने लगा था। भगवान महावीर स्वामी ने अपने युग में प्रचलित भाग्यवाद का भी विरोध किया। ऐसी मान्यता थी कि ईश्वर जिसे जिस स्थिति में रखना चाहता है-स्वयं वही समय-समय पर उसे वैसा बनाता रहता है। मनुष्य इस व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। वह भाग्याधीन है और जैसा चाहे वैसा स्वयं को बना ही नहीं सकता। भगवान ने इस बद्धमूल धारणा का प्रतिकार करते हुए ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का परिचय दिया। आपने बताया कि ईश्वर तो निर्विकार है। वह किसी को कष्ट अथवा किसी को सुख देने की कामना ही नहीं रखता। ये परिस्थितियाँ तो प्राणी के अपने ही पूर्वकर्मों के फलरूप में प्रकट होती हैं। अपने लिए भावी सुख की नींव मनुष्य स्वयं रख सकता है और शुभकर्म करना उसका साधना है। वह निज भाग्य निर्धारक है। भगवान का कर्मवाद यह सिद्धांत भी रखता है कि किसी की श्रेष्ठता का निश्चय उसके वंश से नहीं, अपितु उसके कर्मों से ही होता है। कर्म से ही कोई महान् व उच्च हो सकता है और कर्मों से ही नीच व पतित। इस प्रकार जातिवाद पर आधारित कोरे दम्भको भगवान ने निर्मूल कर दिया और सामाजिक-न्याय की प्रतिष्ठा की। __ भगवान शिक्षा दिया करते थे कि नैतिकता, सदाचार और सद्भाव की किसी मनुष्य को मानव कहलाने का अधिकारी बनाते है। धर्मशून्य मनुष्य प्राणी तो होगा, किन्तु मानवोचित सद्गुणों के अभाव में उसे मानव नहीं कहा जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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