Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ 148 अन्तिम उपसर्ग जब भगवान ने अपनी साधना के 12 वर्ष व्यतीत कर लिए तो उन्हें अन्तिम ओरअति दारुण उपसर्ग उत्पन्न हुआ था। वे विहार करते हुए छम्माणीग्राम में पहुँचे थे। वहाँ ग्राम के बाहर ही एक स्थान पर वे ध्यानमग्न होकर खड़े थे। एक ग्वाला आया और वहाँ बैलों को छोड़ गया। जब वह लौटा तो बैल वहाँ नहीं थे। भगवान को बैलों के वहाँ होने और न होने की किसी भी स्थिति का भान नहीं था। ध्यानस्थ भगवान से ग्वाले ने बैलों के विषय में प्रश्न किए, किन्तु भगवान ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे तो ध्यानलीन थे। क्रोधान्ध होकर ग्वाला कहने लगा कि इस साधु को कुछ सुनाई नहीं देता, इसके कान व्यर्थ हैं। इसके इन व्यर्थ के कर्णरंध्रों को मैं आज बन्द ही कर देता हूँ। और भगवान के दोनों कानों में उसने काष्ठ शलाकाएँ ठूंस दीं। कितनी घोर यातना थी ? कैसा दारुण कष्ट भगवान को हुआ होगा, किन्तु वे सर्वथा धीर बने रहे। उनका ध्यान तनिक भी नहीं डोला । ध्यान की सम्पूर्ति पर भगवान मध्यमा नगरी में भिक्षा हेतु जब सिद्धार्थ वणिक के वहाँ पहुँचे तो वणिक के वैद्य खरक ने इन शलाकाओं को देखकर भगवान द्वारा अनुभूत कष्ट का अनुमान किया और सेवाभाव से प्रेरित होकर उसने कानों से शलाकाओं को बाहर निकाला । चौबीस तीर्थंकर साढ़े 12 वर्ष की साधना - अवधि में भगवान को होने वाला यह सबसे बड़ा उपसर्ग था। इसमें इन्हें अत्यधिक यातना भी सहनी पड़ी। संयोग की ही बात है कि उपसर्गों का आरम्भ और समाप्ति दोनों ही ग्वाले के बैलों से सम्बन्ध रखने वाले प्रसंगों से हुई । अद्भुत अभिग्रह : चन्दनबाला प्रसंग प्रव्रज्या से केवलज्ञान - प्राप्ति तक की अवधि ( साधना - काल ) भगवान महावीर के लिए घोर कष्टमय रही। इन उपसर्गों में प्राकृति आपदाएँ भी थी और दुर्जनकृत परिस्थितियाँ भी इन्हें समता के भाव से झेलने की अपूर्व सामर्थ्य थी भगवान में । आहार-विषयक नियंत्रण में भी भगवान बहुत आगे थे । निरन्न रहकर महिनों तक वे साधनालीन रह लेते थे। एक अभिग्रह - प्रसंग तो बड़ा ही विचित्र है, जो भगवान के आत्म- नियन्त्रण का परिचायक भी है। प्रभु ने एक बार 13 बोलों का विकट अभिग्रह किया, जो इस प्रकार था - अविवाहिता नृप कन्या हो जो निरपराध एवं सदाचारिणी हो - तथापि वह बन्दिनी हो, उसके हाथों में हथकड़ियाँ व पैरों में बेड़ियाँ हों - वह मुण्डित सिर हो वह 3 दिनों से उपोषित हो - वह खाने के लिए सूप में उबले हुए बाकुले लिए हुए हो - वह प्रतीक्षा में हो, किसी अतिथि की—वह न घर में हो, न बाहर - वह प्रसन्न बदना हो - किन्तु उसके नेत्र अश्रुपूरित हों । यदि ऐसी अवस्था में वह नृप कन्या अपने भोजन में से मुझे भिक्षा दे, तो मैं आहार करूँगा अन्यथा 6 माह तक निराहार ही रहूँगा - यह अभिग्रह करके भगवान यथाक्रम विचरण करते रहे और श्रद्धालुजन नाना खाद्य पदार्थों की भेंट सहित उपस्थित होते, किन्तु वे उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224