Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 200
________________ 142 चौबीस तीर्थंकर प्राप्ति हुई थी। साढ़े 12 वर्ष का यह कठोर साधनाकाल भगवान के लिए विकट उपसर्गों ओर परीषहों का काल भी रहा। भगवान की तो मान्यता ही यह थी कि जो कठिन परीषहों और उपसर्गों पर विजय प्राप्त कर लेता है-वही वास्तवित साधक है। उनकी धारणा यह भी थी कि कष्टों को सहन करके ही हम अपने पापों को नष्ट कर सकते हैं। इन दृष्टिकोणों के कारण महावीर स्वामी ने नैसर्गिक और स्वाभाविक रूप से आने वाले कष्टों को तो सहन किया ही-इसके अतिरिक्त उन्होंने कई कष्टों को स्वयं भी निमंत्रित किया। उन्होंने उन प्रदेशों में ही अधिकतर विहार किया जहाँ विधर्मी, क्रूरकर्मी, असज्जन लोगों का निवास था और ये लोग दुर्जनतावश भगवान को नाना भाँति यातनाएँ देते रहते थे। ऐसे-ऐसे अनेक प्रसंग भी बहुचर्चित हैं जिनसे न केवल उपसर्ग एवं परीषहों की भयंकरता, अपितु श्रमण भगवान की अपार सहिष्णुता व अहिंसावृत्ति का भी परिचय मिलता है। गोपालक-प्रसंग सर्वथा आत्मलीन अवस्था में भगवान किसी वन में साधना- व्यस्त थे और एक गोपालक अपने पशुओं सहित आ पहुचा। गोदोहन का समय था, अत: उसे घर जाना था, किन्तु उसके साथ जो बैल थे, तब तक उनकी देखभाल कौन करेगा? यह समस्या उसके सामने थी। उसने भगवान को यह काम सौंप दिया और बिना उत्तर सुने ही चल दिया। जब वह लौटा तो देखा कि महावीर अब भी ध्यानमग्न हैं और उसके बैल कहीं दिखाई नहीं दे रहे। उसने भगवान को अनेक कटु और अपशब्द कहे और रोष के साथ वह समीप के क्षेत्र में अपने बैल खोजने लगा, किन्तु कहीं भी उनका पता नहीं लगा। हिंसा और आवेश के भावों के साथ जब वह पुन: भगवान के समीप आया तो उसने देखा कि भगवान के चरणों में ही उसके बैल बैठे हैं। गोपालक ने बौखला कर बैलों की रस्सी से ध्यानलीन भगवान के तन पर कोड़े बरसाना आरंभ कर दिया। आघात सहकर भी भगवान ने उफ् तक नही किया। उनका ध्यान यथावत् बना रहा। सहसा गोपालक के कोड़े को पीछे से किसी ने थाम लिया। उसने जो मुड़ कर देखा तो पाया कि एक दिव्य पुरुष खड़ा है, जिसने उसे प्रतिबोध दिया कि तू जिसे यातना दे रहा है, वह तो भगवान महावीर हैं। तू कदाचित् यह जानता नहीं है। यह सुनकर गोपालक अपने क्रूर कर्म पर पछताने और दुखित होने लगा। उसे तीव्र आत्मग्लानि हुई। भगवान ने चरणों में नमन कर वह क्षमा-याचना करने लगा। कुछ समयोपरान्त भगवान का ध्यान समाप्त हुआ और उन्होंने देखा कि वह दिव्य पुरुष अब भी उनके समक्ष करबद्ध अवस्था में खड़ा है। यह और कोई नहीं स्वयं इन्द्र था। इन्द्र ने भगवान से निवेदन किया कि आपको अपनी साधना में अनेकानेक कष्ट भोगने पड़ेगे। दुर्जन इसमें तनिक भी पीछे नहीं रहेंगे। प्रभु आप आज्ञा दें तो मैं आपके साथ रहकर इन बाधाओं को दूर करता चलूँ। __ भगवान को इसकी आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने उत्तर दिया कि मेरी साधना स्वश्रयी है। अपने पुरुषार्थ से ही ज्ञान व मोक्ष सुलभ हो सकता है। कोई भी अन्य इसमें सहायक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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