Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 199
________________ भगवान महावीर स्वामी स्वतः दीक्षा ग्रहण ज्ञातखण्ड उद्यान में आगमन होने पर प्रभु ने समस्त वस्त्रालंकरों का त्याग कर दिया । स्वयं ही पंचमुष्टि लुंचन कर भगवान ने संयम स्वीकार कर लिया। तत्काल ही उन्हें मनः पर्यवज्ञान प्राप्त हो गया। यह अद्भुत दीक्षा समारोह था, जिसमें वर्धमान स्वयं ही दीक्षादाता और स्वयं ही दीक्षा - ग्राहक थे। वे स्वयं स्वयंबुद्ध थे, उनका अन्त:करण स्वतः प्रेरित एवं जागृत था। वे ही अपने लिए मार्ग के निर्माता और स्वयं ही उस मार्ग के पथिक थे। 141 भगवान महावीर ने इस आत्मदीक्षा के पश्चात् इस विशाल परिषद् में सिद्धों को सश्रद्धा नमन किया और इस आशय का संकल्प किया 66 'अब मेरे लिए सभी पापकर्म अकरणीय हैं। मेरी इनमें से किसी में प्रवृत्ति नहीं रहेगी। आज से मैं सम्पूर्ण सावद्य कर्म का 3 करण और 3 योग से त्याग करता हूँ । ” यह समारोह राग पर विराग की विजय का साक्षी था। समस्त उपस्थिति इस अनुपम त्याग को देखकर मुग्ध और स्तब्ध सी रह गयी थी । - साधना : उपसर्ग एवं परीषह दीक्षा ग्रहण करते ही भगवान ने उपदेश क्रम प्रारम्भ नहीं कर दिया। इस हेतु अभी तो उन्हें ज्ञान प्राप्त करना था, उस मार्ग की खोज उन्हें करनी थी, जो जीव और जगत् के लिए कल्याणकारी हो। और उसी मार्ग के अनुसरण का उपदेश भगवान द्वारा किया जाने वाला था। उस मार्ग को खोजने के लिए प्रथमतः आत्मजेता होना अपेक्षित था और इस स्वरूप को प्राप्त करने के लिए कठोर साधनाओं और घोर तपश्चर्याओं के साधनों को अपनाना था। भगवान ने अब अपनी सतत साधनाओं का क्रम आरम्भ कर दिया। मन ही मन उन्होंने यह संकल्प ग्रहण किया- 'जब तक मैं केवलज्ञान का अलौकिक आलोक प्राप्त न कर लूँगा-तब तक शान्तैकान्त वनों में रहकर आत्म-साक्षात्कार हेतु सतत प्रयत्नशील रहूँगा। ” मौन रहकर श्रमणसिंह महावीर जीवन और जगत की गुत्थियों को सुलझाने के लिए मनो-मन्थन में लीन रहते। उच्च पर्वत शिखरों, गहन कन्दराओं, सरिता- तटों पर वे ध्यानावस्थित रहने लगे। आहार-विहार पर अद्भुत नियन्त्रण स्थापित करने में भी वे सफल रहे। कठोर प्राकृतिक आघातों को सहिष्णुता और धैर्य के साथ झेलने की अप्रतिम क्षमता उनमें थी। अहिंसा का व्यवहार और अप्रमाद उनकी मूलभूत विशेषताएँ रहीं। धीर - गम्भीर महावीर निर्भीकता के साथ गहन वन प्रान्तों में विहार करते हुए आत्म-साधन की सीढ़ियों को एक के बाद एक पार करते चले गये। भगवान महावीर के लिए भी साधना का यह मार्ग कम कंटकाकीर्ण न था । 30 वर्ष की आयु में प्रव्रज्या अंगीकार करने वाले भगवान को 42 वर्ष की आयु में केवलज्ञान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224