Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 198
________________ 140 चौबीस तीर्थंकर समय व्यतीत कर रहे थे। ऐसी परिस्थिति में अपने प्रिय भ्राता वर्धमान का मन्तव्य सुनकर उनके हृदय को एक और भीषण आघात लगा। नन्दिवर्धन ने उनसे कहा कि इस असहाय अवस्था में मुझे तुमसे बड़ा सहारा मिल रहा है। तुम भी यदि मुझे एकाकी छोड़ गए तो मेरा और इस राज्य का क्या भविष्य होगा? इस विषय में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। कदाचित् मेरा जीवित रहना ही असम्भव हो जायगा। अभी तुम गृह - त्याग न करो.....इसी में हम सब का शुभ है। इस हार्दिक अभिव्यक्ति ने विरक्त महावीर के निर्मल मन को द्रवित कर दिया और वे अपने आग्रह को दुहरा नहीं सके। नन्दिवर्धन के अश्रु- प्रवाह में वर्धमान की मानसिक दृढ़ता बह निकली और उन्होंने अपने भावी कार्यक्रम को आगामी कुछ समय तक के लिए स्थगति रखने का निश्चय कर लिया। अग्रज नन्दिवर्धन की मनोकामना के अनुरूप महावीर अभी गृहस्थ तो बने रहे, किन्तु उनकी उदासीनता और गहन होती गयी। दो वर्ष की यह अवधि उन्हें अत्यन्त दीर्घ लगी, क्योंकि जिस लक्ष्य प्राप्ति की कामना उनकी मानसिक साध को तीव्र से तीव्रतर करती चली जा रही थी-उस ओर चरण बढ़ाने में भी वे स्वयं को विवश अनुभव कर रहे थे। स्वेच्छा से ही उन्होंने अपने चरणों में कठिन लोह-शृंखलाओं के बंधन डाल लिए थे। किन्तु साधक को अपने इस स्वरूप के निर्वाह के लिए विशेष परिवेश और स्थल की अपेक्षा नहीं रहती। वह तो जहाँ भी और जिन परिस्थितियों व वातावरण में रहे, उनकी प्रतिकूलता से अप्रभावित रह सका है। सच्चे अनासक्तों के इस लक्षण में भगवान तनिक भी पीछे नहीं थे। भगवान ने इस अवधि में राजप्रासाद और राजपरिवार में रहकर भी योगी का-सा जीवन व्यतीत किया और अपनी अद्भुत संयम-गरिमा का परिचय दिया। अपनी पत्नी को उन्होंने बहनवत् व्यवहार दिया और समस्त उपलब्ध सुख-सुविधाओं के प्रति घोर विकर्षण उनके मन में बना रहा। अब क्या वन और क्या राजभवन? उनके लिए राजभवन ही वन था। अद्भुत गृहस्थ-योगी का स्वरूप उनके व्यक्तित्व में दृश्यमान होता था। महाभिनिष्क्रमण भगवान को अत्यन्त दीर्घ अनुभव होने वाली इस अवधि की समाप्ति भी अन्तत: हुई ही। लोकान्तिक देवों ने आकर वर्धमान से धर्मतीर्थ के प्रवर्तन की प्रार्थना की और वे वर्षीदान में प्रवृत्त हुए। वर्षपर्यन्त उदारतापूर्वक वे दान देते रहे और मार्गशीर्ष कृष्णा 10 का वह शुभ समय भी आया जब भगवान ने गृह- त्याग कर आत्म और जगत कल्याण की भी यात्रा आरम्भ की। इस विकट यात्रा का प्रथम चरण अभिनिष्क्रमण द्वारा ही सम्पन्न हुआ। इन्द्रादि देवों द्वारा महाभिनिष्क्रमणोत्सव का आयोजन किया गया। अपने नेत्रों को सफल कर लेने की अभिलाषा के साथ हजारों लाखों जन दूर-दूर से इस समारोह में सम्मिलित होने को आए। चन्द्रप्रभा शिविका में आरूढ़ होकर वर्धमान क्षत्रिकुण्डवासियों के जय-जयकार के तुमुलघोष के मध्य नगर के मार्गों को पार करते हुए ज्ञातखण्ड उद्यान में पधारे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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