Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 191
________________ भगवान महावीर स्वामी 133 और उसकी कन्दरा में पहुँच कर उसे ललकारा। सिंह तो बेचारा रथहीन और शास्त्ररहित था। वीरधर्मानुसार त्रिपृष्ठ ने भी रथ और शस्त्रों का त्याग कर दिया और हिंस्र सिंह से द्वन्द्व करने लगा। देखते ही देखते उसने सिंह के अबड़े को विदीर्ण कर दिया। सिंह का प्राणान्त हो गया। इस पराक्रम को सुनकर राजा अश्वग्रीव को निश्चय हो गया कि त्रिपृष्ठ ही मेरा वध करने वाला वासुदेव होगा और उसे पहले ही समाप्त कर देने की योजना से त्रिपृष्ठ को सम्मानित करने के लिए अश्वग्रीव ने अपनी राजधानी में आमंत्रित किया। इस सन्देश के साथ त्रिपृष्ठ ने आमंत्रण को अस्वीकृत कर दिया कि जो राजा एक सिंह को भी नही मार सका, उसके द्वारा सम्मानित होने से हमारी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती। इस उत्तर से अश्वग्रीव कुपति हो गया और विशाल सेना के साथ उसने प्रजापति के राज्य पर आक्रमण कर दिया और त्रिपृष्ठ के हाथों मारा गया। _त्रिपृष्ठ जितना पराक्रमी था उतना ही, अकरुण और क्रूरकर्मी भी था। अत: उसने निकाचित कर्म का बंध कर लिया और इस प्रकार नयसार का 19वाँ भव तब हुआ, जब वासुदेव त्रिपृष्ठ का जीव सप्तम नरक में नेरइया के रूप में उत्पन्न हुआ। यही जीव अपने 20वें भव में सिंह, 21वें भव में चतुर्थ नरक का नेरइया होकर 22वें भव में प्रियमित्र (पोट्टिल) चक्रवर्ती हुआ। प्रियमित्र ने पोट्टिलाचार्य के पास संयम ग्रहण कर दीर्घकाल तक घोर तप और साधनाएँ की और इसका जीव महाशुक्र कल्प में देव बना। यह नयसार का 23वाँ भव था। अपने 24वें भव में नयसार का जीव राजा नन्दन के रूप में उत्पन्न हुआ था और उसने तीर्थंकर गोत्र का बंधन किया तथा यथासमय काल कर वह प्राणत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में देव बना। यह नयसार के जीवन का 25वाँ भव था। {प्राणत स्वर्ग से च्यवन कर राजा नन्द का (नयसार का) जीव ब्राह्मणी देवानन्दा की कुक्षि में स्थिर हुआ था। यह 26वाँ भव था और वहाँ से निकाल कर उसे रानी त्रिशला के गर्भ में स्थापित किया गया यह नयसार के जीव का 27वाँ भव था-भगवान महावीर स्वामी के रूप में। जन्म-वंश ब्राह्मणकुण्ड ग्राम में एक सदाचारी ब्राह्मण ऋषभदत का निवास था। उसकी पत्नी का नाम था-देवानन्दा। प्राणत स्वर्ग की सुखोपभोग- अवधि समाप्त होने पर राजा नन्दन (नयसार) का जीव वहाँ से च्युत हुआ और ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ में स्थिर हो गया। उस समय आषाढ़ शुक्ला 6 का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था। गर्भधारण की रात्रि को ही देवानन्दा ने 14 दिव्य स्वप्न देखे और उनकी चर्चा ऋषभदत्त से की। उसने स्वप्न फल पर विचार करके कहा कि देवानन्दा तुझे, पुण्यशाली, लोकपूज्य, विद्वान और पराक्रमी पुत्र की प्राप्ति होने वाली है। यह सुनकर देवानन्दा परम प्रसन्न हुई और मनोयोगपूर्वक वह गर्भ का पालन करने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224