Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 181
________________ भगवान पार्श्वनाथ अपनी साधना के प्रति की गयी ललकार को कमठ सहन नहीं कर पाया। उसने राजकुमार के विचारों का प्रत्याख्यान करते हुए रोषयुक्त वाणी में कहा कि तप की महिमा को हम भली-भाँति समझते हैं। तुम जैसे राजदण्ड धारण करने वालों को इसका मिथ्या दम्भ नहीं रखना चाहिए। कुमार शान्त थे । गम्भीर वाणी में उन्होंने कहा कि धर्म पर किसी व्यक्ति, वंश या वर्ण का एकाधिपत्य नहीं हो सकता। क्षत्रिय होकर भी कोई धर्म के मर्म को समझ ही नहीं सकता अपितु समझा भी सकता है और ब्राह्मण होकर भी धर्म के नाम पर अकरुण बन सकता है, जीव हिंसा कर सकता है। ऐसा न होता तो आज तुम जीवित प्राणी को यों अग्नि में नहीं होमते । 123 एकत्रित जनसमुदाय में अपने प्रति धारणा की अवनति देखकर कमठ तो क्रोधाभिभूत हो गया। उसके रक्तिमवर्णी नेत्रों का आकार अभिवर्धित होने लगा। क्रोध में आकर उसने राजकुमार पार्श्व को बुरा-भला कहा। वह कर्कशवाणी में कहने लगा कि कुमार मुझ पर जीव- हत्या का दोष लगाकर व्यर्थ ही भक्तों की दृष्टि में मुझे अवनत करने का साहस सोच-समझ कर करो। मैं किसी भी प्राणी की हत्या नहीं कर रहा हूँ। इस वाक् - संघर्ष को व्यर्थ समझकर युवराज पार्श्वकुमार ने नाग की प्राण-रक्षा द्वारा अपने कर्त्तव्य को पूर्ण करने की ठान ली। उन्होंने आज्ञा दी कि लक्कड़ को अग्नि से बाहर निकाल लिया जाय । सेवकों ने तुरन्त आदेश- पालन किया। उसने लक्कड़ को आग से बाहर निकलवाकर नाग को इस दारुण यातना से मुक्त किया। अब तक नाग भीषण अग्नि से झुलस गया था और मरणासन्न था । उन्होंने उसे नवकार महाममंत्र श्रवण करवाया - इस प्रयोजन से कि उसे सद्गति प्राप्त हो सके । लक्कड़ में से नाग को इस दुरवस्था में निकलते देखकर कमठ को तो जैसे काठ ही मार गया। जनता उसकी करुणाहीनता के लिए निन्दा करने लगी। वह हतप्रभ सा हो गया। इस पर कुमार का यह उपदेश कि अज्ञान तप को त्यागों और दया- धर्म का पालन करे - यह कथन उसको असंतुलित कर देनें को पर्याप्त था ही। घोर लज्जा ने उसे नगर त्यागकर अन्यत्र वनों में जाने को विवश कर दिया। वहाँ भी वह कठोर अज्ञान तप में ही व्यस्त रहा और मरणोपरान्त मेघमाली नामक असुरकुमार देव बना । पार्श्वकुमार की चिन्तनशीलता की चिन्तनशीलता ने उन्हें संसार की असारता से भली-भाँति अवगत कर दिया था। वे मानसिक रूप से तो विरक्त जीवन ही जी रहे थे। वैभव में निमग्न रहकर भी जल में कमलवत् वे सर्वथा निर्लिप्त रहा करते थे। विषयों के प्रति रंचमात्र भी आकर्षण उसके मन में न था । उनके ज्ञान और शक्ति की गाथाएँ दूर- दूर तक कही - सुनी जाती थीं । भव्य अति सुन्दर व्यक्तित्व कुमार की विशेषता थी। अनेक राजघरानों से कुमार के लिए विवाह प्रस्ताव आने लगे, किन्तु वे तो साधना - पथ को अपनाना चाहते थे । अतः वे भला इनमें से किसी को कैसे स्वीकार करते । उस समय कुशस्थल में महाराजा प्रसेनजित का शासन था। उनकी राजकुमारी प्रभावती अनिंद्य रूपवती और सर्वगुणसम्पन्न थी। अब वह भी विवाहयोपयुक्त वय को प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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