Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 187
________________ भगवान पार्श्वनाथ प्रभु ने अपनी प्रथम देशना में इन्द्रियों के दमन और सर्व कषायों पर विजय प्राप्त करने का उपदेश दिया। कषायों से उत्पन्न होने वाले कुपरिणामों की व्याख्या करते हुए भगवान ने धर्म - साधना की महत्ता का प्रतिपादन किया। अपनी देशना में भगवान ने स्पष्ट किया कि आत्मा ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण चन्द्रमा के समान है किन्तु उसकी रश्मियाँ कर्मों के आवरण में छिपी रह जाती हैं। ज्ञान- - वैराग्य की साधना इस आच्छादन को इस आवरण को दूर कर सकती है। ऐसा करना प्रत्योक मानव का कर्तव्य है । सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का व्यवहार ही मनुष्य को आवरणों से मुत्ति पाने की समर्थता दे सकता है। धर्म-साधना ही कर्म बंधनों को काट सकती है। सभी के लिए धर्म की आराधना अपेक्षित है और धर्महीनता से जीवन में एक महाशून्य हो जाता है। भगवान की अनुपम प्रभावपूर्ण और प्ररेक वाणी से हजारों नर-नारी सजग हुए। अनेक ने समता, क्षमा और शांति की साधना का व्रत लिया। महाराजा अश्वसेन इस वाणी से प्रेरणा पाकर विरक्त हो गए। अपने पुत्र को राज्य - भार सौंपकर उन्होंने भगवान के पास निव्रत धारण कर लिया। माता वामादेवी और प्रभावती (पत्नी) ने आर्हती - दीक्षा ग्रहण की। भगवान की इस प्रथम देशना से ही हजारों लोगों को आत्म-कल्याण के मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा मिली थी। भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की और भाव तीर्थंकर की गरिमा से सम्पन्न हुए । परिनिर्वाण केवली भगवान पार्श्वनाथ स्वामी ने जन-जन के कल्याण हेतु लगभग 70 वर्ष तक ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए उपदेश दिए और असंख्य जनों को सन्मार्ग पर लगाया। आपके धर्म - शासन में 1000 साधुओं एवं 2000 साध्वियों ने सिद्धि का लाभ प्राप्त किया था। जब भगवान को अपना निर्वाण काल समीप ही लगने लगा, तो वे सम्मेत शिखर पधार गए। वहाँ उन्होंने 33 अन्य साधुओं के साथ अनशन व्रत लिया और ध्यानशील हो गए। शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण में पहुँचकर भगवान ने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय कर दिया। श्रावण शुक्ला अष्टमी को विशाखा नक्षत्र में भगवान पार्श्वनाथ स्वामी को निर्वाण पद की प्राप्ति हो गयी और वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। धर्म परिवार गणधर केवली मनः पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी Jain Education International 129 For Private & Personal Use Only 8 1,000 750 1,400 350 www.jainelibrary.org

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