Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 180
________________ 122 चौबीस तीर्थंकर कुमार-जन्म से सारे राज्य में हर्ष का ज्वार सा आ गया था। 10 दिन तक भाँतिभाँति के उत्सव मनते रहे। जब कुमार गर्भ में थे तो रानी ने अंधेरी रात में भी राजा के पास (पार्श्व) चलते साँप को देख लिया था और राजा को सचेत कर उनकी प्राण-रक्षा कीथी। इस आधार पर महाराज अश्वसेन ने कुमारका नाम रखा पार्श्व कुमार। उत्तर पुराण के एक उल्लेख के अनुसार कुमार का यह नामकरण इन्द्र द्वारा हुआ था। गृहस्थ जीवन युवराज पार्श्वकुमार अत्यन्त वात्सल्य एवं स्नेह से सिक्त वातावरण में विकसित होते रहे। भाँति-भाँति की बाल-सहज क्रीड़ा-कौतुक करते, स्वजन-परिजनों को रिझाते हुए क्रम से अपनी आयु की सीढ़ियाँ लाँघते रहे। वे जन्मजात प्रबुद्धचेता और चिन्तनशील थे। विषय और समस्या पर मनन कर उसकी तह तक पहुँचने की अद्भुत क्षमता थीं उनमें। मौलिक बुद्धि से वे प्रचलित मान्यताओं का विश्लेषण करते और तर्क की कसौटी पर जो खरी उतरतीं, केवल उन्हीं को वे सत्य-स्वरूप स्वीकार करते थे। शेष का वे विरोध करते थे तथा ओर निर्भीकता के साथ उनका खण्डन भी किया करते थे। वे सहज विश्वासी न थे और यही कारण है कि अंध-विश्वास तो उनको स्पर्श भी न कर पाया था। जैसा कि वर्णित किया जा चुका है भगवान का वह युग पाखण्ड और अंध-विश्वासों के युग था। तप-यज्ञादि के नाम पर भाँति-भाँति के पाखण्डों का खुला व्यवहार था। वह मिथ्या मायाचार के अतिरिक्त कुछ भी न था। वाराणसी तो विशेषत: तापस-केन्द्र ही बनी हुई थी। एक दिन युवराज पार्श्वकुमार ने सुना कि नगर में एक तापस आया है, जो पंचधूनी तप कर रहा है। असंख्य श्रद्धालु नर-नारी दर्शनार्थ पहुँच रहे थे। राजमाता और अन्य स्वजनों को भी जब उन्होंने उस तापस की वन्दना करने हेतु जाते देखा, तो उत्सुकतावश वे भी साथ हो लिए। उन्होंने देखा अपार जन-समुदाय एकत्रित है और मध्य में तापस तप ताप रहा है। अग्नि जब मन्द होने लगती तो बड़े-बड़े लक्कड़ तापस अग्नि में खिसकाता जा रहा था। जब इसी प्रकार एक लक्कड़ उसने खिसकाया, तो उसमें युवराज ने एक नाग जीवित अवस्था में देखा। उनके मन में जीवित नाग के दाह की संभावना से अतिशय करुणा का उद्रेक हुआ। साथ ही ऐसी साधना के प्रति घृणा का भाव भी उदित हुआ जिनमें निरीह प्राणियों की प्राणहानि को भी निषिद्ध नहीं समझा जाता। जहाँ एकत्रित समुदाय तापस की स्तुतियाँ कर रहा था, वहाँ राजकुमार पार्श्व के मन में इस तापस के प्रति, उसके अज्ञान के कारण भर्त्सना का भाव प्रबल होता जा रहा था। युवराज ने तापस कमठ को सावधान करते हुए कहा कि यह तप किसी शुभ फल को देने वाला नहीं होगा। करुणा से रहित कोई धर्म नहीं हो सकता और यदि ऐसा कोई धर्म माना जाता है, तो वह अज्ञानता के कारण ही धर्म माना जा सकता है-वास्तव में वह आडम्बर और पाखण्ड के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अन्य जीवों को कष्ट पाकर, उनका प्राणान्त कर आगे बढ़ने वाली साधना, साधक का कल्याण नहीं कर सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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