Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 179
________________ भगवान पार्श्वनाथ 121 और इनके शुभ फलों से अवगत होकर वह फूली न समायी कि वह चक्रवर्ती अथवा धर्मचक्री पुत्र की जननी बनेगी। गर्भावधि की समाप्ति पर रानी ने एक सुन्दर और तेजवान कुमार को जन्म दिया। पिता महाराजा कुलिशबाहु ने कुमार का नाम स्वर्णबाहु रखा। स्वर्णबाहु जब युवक हुए तो वे धीर, वीर, साहसी और पराक्रमी थे। सब प्रकार से योग्य हो जाने पर महाराजा कुलिशबाहु ने कुमार का राज्याभिषेक कर दिया और स्वयं प्रव्रज्या ग्रहण करली। नृपति के रूप में स्वर्णबाहु ने प्रजावत्सलता और पराक्रम का अच्छा परिचय दिया। एक समय राज्य के आयुधागार में चक्ररत्न उदित हुआ जिसके परिणामस्वरूप महाराज स्वर्णबाहु छ: खण्ड पृथ्वी की साधना कर चक्रवर्ती सम्राट के गौरव से विभूषित हुए। पुराणपुर में तीर्थंकर जगन्नाथ का समवसरण था। महाराज स्वर्णबाहु भी उपस्थित हुए। वहाँ वैराग्य की महिमा पर चिन्तन करते हुए उन्हें जाति-स्मरण हो गया। पुत्र को राज्यारूढ़ पर उन्होंने तीर्थंकर जगन्नाथ के पास ही दीक्षा ले ली। मुनि स्वर्णबाहु ने अर्हद्भक्ति आदि बीस बोलों की आराधना और कठोरतप के परिणामस्वरूप तीर्थंकर नाककर्मका उपार्जन किया। एक समय मुनि स्वर्णबाहु विहार करते करते क्षीरवर्णा वन में पहुँचे। कमठ का जीव अनेक भवों की यात्रा करते हुए इस समय इसी वन में सिंह के भव में था। वन में मुनि को देखकर सिंह को पूर्व भवों का वैर स्मरण हो आया और कुपित होकर उसने मुनि स्वर्णबाहु पर आक्रमण कर दिया। मुनि अपना अन्तिम समय समझकर सचेत हो गए थे उन्होंने अनशन ग्रहण कर लिया। हिंस्र सिंह ने मुनि का काम तमाम कर दिया। इस प्रकार मुनि स्वर्णबाहु ने समाधिपूर्वक देह को त्यागा और महाप्रभ विमान में महर्द्धिक देव बने। सिंह भी मरण प्राप्त कर चौथे नरक में नैरयिक हुआ। जन्म-वंश पवित्र गंगा नदी के तट पर काशी देश-इस देश की एक रमणीक और विख्यात नगरी थी वाराणसी। किसी समय इस नगर में महाराजा अश्वसेन का राज्य था। इक्ष्वाकुवंश के शिरोमणि महाराजा अश्वसेन की महारानी थीं-वामादेवी। चैत्र कृष्णा चतुर्थी का दिवस और विशाखा नक्षत्र का शुभयोग था-तक स्वर्णबाहु का जीव महाप्रभ विमान से अपना 20 सागर का आयुष्य भोगकर च्युत हुआ और रानी वामादेवी के गर्भ में स्थित हुआ। गर्भ धारण की रात्रि में ही रानी ने 14 महान् और शुभ स्वप्नों का दर्शन किया। स्वप्नफल-द्रष्टाओं की भविष्य-उक्ति सुनकर कि रानी की कोख से तेजस्वी चक्रवर्ती अथवा तीर्थंकर होने वाला पुत्र-रत्न उत्पन्न होगा-राज-परिवार में प्रसन्नता व्याप्त हो गयी। माता सुखद औ आनन्दित मन के साथ गर्भ-पोषण करने लगी। यथासमय माता ने पौष कृष्णा दशमी को अनुराधा नक्षत्र के शुभयोग में एक तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया। नीलमणि की-सी कांति और अहि मुख चिन्ह से युक्त कुमार के जन्म लेते ही सभी लोकों में एक आलोक व्याप्त हो गया, जो तीर्थंकर के अवतरण का संकेत था। दिकुमारियों, देवेन्द्र और देवों ने मिलकर भगवान के जन्म-कल्याण महोत्सव का आयोजन किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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