Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 178
________________ 120 चौबीस तीर्थंकर 6. वज्रनाभ का भव 7. ग्रैवेयक देवलोक का भव 8. स्वर्णवाहु का भव 9. प्रणत देवलोक का भव 10. पार्श्वनाथ का भव पोतनपुर नगर के नरेश महाराजा अरविन्द जैनधर्म परायण थे। उनके राजपेरोहित विश्वभूति के दो पुत्र थे-बड़ा कमठ और छोटा मरुभूति। पिता के स्वर्गवास के बाद कमठ ने पिता का कार्यभार संभाल लिया; किन्तु मरुभूति की रुचि सांसारिक विषयों में नहीं थी। वह सर्व सावद्ययोगों को त्यागने के अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा में रहा करता। दोनों भाइयों के मनेजगत में जमीन-आसमान का अन्तर था। कमठ कामुक और दंभी था। इन दुर्गुणों ने उसके चरित्र को पतित कर दिया था। यहाँ तक कि अपने अनुज की पत्नी से भी उसके अनुचित संबंध थे। कमठ की पत्नी इसे कैसे सहन करती? उसने देवर को इस वीभत्सकांड का समाचार किया, किन्तु मरुभूति सहज ही इसमें सत्यता का अनुभव न कर पाया। उसका सरल हृदय सर्वथा कपटहीन था और अपने अग्रज कमठ के प्रति वह ऐसे किसी भी संवाद को विश्वसनीय नहीं मान पाया। कानों पर विश्वास चाहे न हो, पर आँखें तो कभी छल नहीं कर पातीं। उसने यह घोर अनाचार जब स्वयं देखा तो सन्न रह गया। उसने राजा की सेवा में प्रार्थना की और राजा, ब्राह्मण होने के नाते कमठ को मृत्यु दण्ड तो नहीं दे पाया, किन्तु उसे राज्य से निष्कासित कर दिया गया। कमठ ने जंगल में कुछ दिनों पश्चात तपस्या प्रारम्भ कर दी। अपने चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर, नेत्र निमीलित कर बैठ गया। समीप के क्षेत्र में कमठ के तप की प्रशंसा होने लगी और श्रद्धा-भाव के साथ जन-समुदाय वहाँ एकत्र रहने लगा। मरुभूति ने जब इस विषय में सुना तो उसका सरल मन पश्चात्ताप में डूब गया। वह सोचनो लगा कि मैंने कमठ के लिए घोर यातनापूर्ण परिस्थितियाँ उत्पन्न करदी है। उसके मन में उत्पन्न पश्चात्ताप का भाव तीव्र होकर उसे प्रेरित करने लगा कि वह कमठ से क्षमायाचना करे। वह कमठ के पास पहुँचा। उसे देखकर कमठ का वैमनस्यभाव वीभत्स हो उठा। मरुभूति जब क्षमायाचनापूर्वक अपना मस्तक कमठ के चरणों में झुकाए हुए था, तभी कमठ ने एक भारी प्रस्तर उसके सर पर दे मारा। मरुभूति के प्राण-पखेरु उड़ गए। इसी भव में नहीं, आगामी अनेक जन्मों में कमठ अपनी शत्रुता के कारण मरुभूति के जीव को त्रस्त करता रहा। यह कथा तो है, भगवान के 10 पूर्व भवों में से पहले भव की। अपने आठवें भव में मरुभूति का जीव राजा स्वर्णबाहु के रूप में उत्पन्न हुआ था। पुराणपुर नगर में एक समय महाराज कुलिशबाहु का शासन था। इनकी धर्मपत्नी महारानी सुदर्शना थी। मध्य ग्रैवेयक का आयुष्य समाप्त कर जब वज्रनाभ में जीव का च्यवन हुआ तो उसने महारानी सुदर्शना के गर्भ में स्थिति पायी। इसी रात्रि को रानी ने 14 दिव्य स्वप्न देखें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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