Book Title: Chobis Tirthankar
Author(s): Rajendramuni
Publisher: University of Delhi

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Page 172
________________ 114 चौबीस तीर्थंकर समस्त घातिककर्मों के क्षय के लिए कठोर तप के संकल्प के साथ भगवान ने वहाँ से प्रस्थान किया। 54 दिन छद्मस्थचर्या में रहकर भगवान विभिन्न प्रकार के तप करते रहे और फिर उसी उच्चयंत गिरि, अपने दीक्षा-स्थल पर लौट आए। वहाँ अष्टम तप में लीन हो गए। शुक्लध्यान से भगवान ने समस्त घातिकर्मों को क्षीण कर दिया और आश्विन कृष्ण अमावस्या की अर्धरात्रि से पूर्व, चित्रा नक्षत्र के योग में केवलज्ञान-केवलदर्शन को प्राप्त कर लिया। समवसरण : प्रथम देशना भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होते ही सर्वलोकों में एक प्रकाश व्याप्त हो गया। आसन कम्प से इंद्र को इसकी सूचना हुई। वह देवताओं सहित भगवान की वंदना करने को उपस्थित हुआ। देवताओं ने भगवान के समवसरण की रचना की। संदेश श्रीकृष्ण के पास भी पहुँचा और संदेशवाहकों को उन्होंने प्रसन्न होकर पुरस्कृत किया। यादववंशियों सहित श्रीकृष्ण, दशों दशार्ह, देवकी आदि माताओं, बलभद्र आदि बंधुओं और 16 हजार राजाओं के साथ समवसरण में सम्मिलित हुए। ये सभी अपने वाहनों और शास्त्रों को त्याग कर समवसरण मेंप्रविष्ट हुए। स्फटिक आसन पर विराजित प्रभु पूर्वाभिमुखी थे, किन्तु तीर्थकरत्व के प्रभाव से उनका मुख सभी दिशाओं से दृश्यमान था। भगवान ने वार्तालाप की सहज भाषा में दिव्य देशना दी और अपने अलौकिक ज्ञानालोक से भव्यों के अज्ञानान्धकार को विदीर्ण कर दिया। प्रभु की विरक्ति-उत्प्रेरक वाणी से प्रभावित होकर सर्वप्रथम राजा वरदत्त ने प्रभु चरणों में तत्काल ही दीक्षा ग्रहण कर ली। इसके पश्चात् दो हजार क्षत्रियों ने दीक्षा ले ली। अनेकों ने श्रमण दीक्षा ग्रहण की। अनेक राजकन्याओं ने भी भगवान के चरणों में दीक्षा ली। इनमें से यक्षिणी आर्या को भगवान ने श्रमणी संघ की प्रवर्तिनी बनाया। दशों दशार्ह, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्युम्न आदि ने श्रावकधर्म और माता शिवादेवी, रोहिणी, देवकी, रुक्मिणी आदि ने श्राविकाधर्म स्वीकार किया। इस प्रकार भगवान साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना कर भावतीर्थ की गरिमा से विभूषित हुए। राजीमती द्वारा प्रव्रज्या राजीमती प्रियतम के वियोग में अतिशय कष्टमय समय व्यतीत कर रही थी। भगवान के केवली हो जाने के शुभ संवाद से वह हर्ष विह्वल हो उठी। उसने सांसारिक सुखों को तो त्याग ही दिया था। अब वह पति के मार्ग पर अग्रसर होने को कृत संकल्प हो गयी। दुःखी माता-पिता से जैसे-तैसे उसने अनुमति ली और केश-लुंचन कर संयम स्वीकार कर लिया। स्वयं दीक्षा ग्रहण कर लेने पर उसने अन्य अनेक स्त्रियों को दीक्षा दी। अनेक साध्वियों के साथ वह भगवान के चरणों की वन्दना के लिए चल पड़ी। इस समय केवली भगवान रेवताचल पर विराजित थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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