Book Title: Chikitsa Kalika
Author(s): Narendranath Mtra
Publisher: Mitra Ayurvedic Pharmacy

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Page 164
________________ कुष्ठचिकित्सा। द्विभागं घृतं द्विशतं मधु द्विशतमिति । सा एषा औषधायस्कृतिरुक्त. मात्रा उक्तप्रमाणा । यया कल्पितया आमयै रोगैः कुष्ठादिभिः अप्रतिवार्य वीर्य शक्तिर्यस्याः सा तथा । अनया च प्रयुक्तया औषधियुक्त्या प्रत्यहं प्रतिदिवसमायुषो वृद्धिः। धियश्च बुद्धवृद्धिर्भवति। अनया स्थौल्यं मेदुरत्वं च न भवति । प्रमेहक्षयकुष्ठानि नृणां प्राणिनां न भवन्ति । पाण्डुता पाण्डुरोगः । श्लीपदरुक् श्लीपदव्याधिः। ऊर्वोः स्तम्भरुजः ऊरुस्तम्भनं कदाचिन्न स्यात् न भवेदिति प्रत्येकमभिसम्बध्यते । ननु च शिंशपाप्रभृतिभिरिति किमनेन प्रभृतिग्रहणेन ? यावता हि यथा परिपठितैरेतैर्द्रव्यैरियमयस्कृतिः साध्यते । न चानेन प्रभृतिग्रहणेनापराण्यपि द्रव्याण्याक्षिप्यन्ते सुश्रुतेनाप्यनुक्तत्वात् । तथाहि त्रिवृच्छयामाग्निमन्थसप्तलाशङ्खिनीतिल्वकत्रिफलापलाशशिंशपानां स्वरसमादायेत्यादि । तस्मात्प्रभृतिग्रहणं निरर्थकम् । अत्रोच्यते-आचार्येणतैर्लिंगमात्रमदर्शि। यथा एवं प्रकारैः कुष्ठप्रत्यनीकैरपरैरपि द्रव्यैरप. रेष्वपि लोहेष्वन्या अप्यस्कृतयो विधेयाः । तथा च सुश्रुतः-एवं न्यग्रोधादिध्यप्यस्कृतीविदध्यात् । तथा एतेन सर्वलोहेष्वयस्कृतयो व्याख्याताः" । "तथारिष्टासवसुरालेहचूर्णान्ययस्कृतीः। सहस्रशोऽपि कुर्वीत बीजेनानेन बुद्धिमानिति ॥ २०२–२०६ ॥ इति कुष्ठचिकित्सा समाप्ता। औषधायस्कृति-तिल्वक (पट्टिकालोध्र ), बहेड़ा, आंवला, सातला, शंखिनी (शंखपुष्पी), पलाशतरु (ढाक का वृक्ष) की छाल, शीशम काष्ठ, निसोत, विधारामूल, अग्निमन्थ (अरणी) की छाल, हरड़, प्रत्येक १ प्रस्थ, क्वाथार्थ जल ४ द्रोण, अवशिष्ट क्वाथ १ द्रोण। इस क्वाथ को पलाश की लकड़ी से बनी हुई द्रोणी (टबाम डाल दें। पश्चात् १ तुला (१० सेर) परिमिति विशुद्ध लोहे के गोलों को खदिर (खैर) के अंगारों पर तपावें। जब लाल होजाय तब उस क्वाथ में बुझादें मोज प्रकार तबतक करते रहें जबतक कि सम्पूर्ण लोहे का श्लक्ष्णचूर्ण होकर क्वाक में ज मिल जाय । तदनन्तर गोमयाग्नि से इसे पुनः पकावें ।जब पाकशेष हो तब पिप्पल्यादि गण का चूर्ण १ तुला तथा घी २ तुला मिलावें और नीचे उतार लें। शीतलं होने पर मधु २ तुला का प्रक्षेप दें। इस औषधायस्कृति की रोगनाशिनी शक्ति रोगों द्वारा पराभूत नहीं होती अर्थात् यह रोगों को अवश्य ही नष्ट करती है। इसके प्रयोग से आयु, बुद्धि तथा मेधा की प्रतिदिन उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। इसके सेवन से स्थूलता, प्रमेह, क्षय, कुष्ठ, पाण्डु, श्लीपद, उरुस्तम्भ प्रभृति रोग नष्ट होते हो।

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