Book Title: Chikitsa Kalika
Author(s): Narendranath Mtra
Publisher: Mitra Ayurvedic Pharmacy

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Page 242
________________ २२९ वातरोगचिकित्सा। कल्कीकृताभिः । लामजमुशीरभेदः । सर्जरसो राला । फलिनी प्रियङ्गुः । नागकुसुमं नागकेसरम् । कुटिलं तगरं । वाट्यालकं बला । द्विपबला नागबला। मिशिः शतपुष्पा। वाजिगन्धा अश्वगन्धा । गन्धर्वहस्तः एरण्डः । वरी शतावरी। सारिवा उत्पलसारिवा। युपणिनी शालिपर्णी, पृश्निपर्णी । मधुरभेषजानि काकोल्यादीनि पूर्वोक्तानि । शेषाणि प्रसिद्धानि। अमूनि पश्चतैलानि यानि मृदूनि सुकुमाराणि मया अत्र कथितानि तानि पवनामयनाशनानि भवन्ति । तानि भूमिभुजां राज्ञां सेव्यानि भवन्ति। किमर्थ ? दुर्बलवपुर्बलवर्द्धनाय योषिद्गमाय च स्त्रीरत्यर्थम् । भुवि पृथिव्यां । स्त्रीणां च गर्भिणीनां उद्गाढगात्रगुरुगर्भभरालसानामिति सुखप्रसवनाय सेव्यानि भवन्तीति । प्रमदाजनानां च वपुषि मार्दवाय च मृदुकरणार्थ सेव्यानि भवन्ति । शिशोश्च दन्तोद्गमेषु सत्सु दशनोद्गमाय दन्तोद्मनार्थ सेव्यानि भवन्तीति ॥ ३४१-३४६॥ ___गुडूचीतैल-तिलतैल २ आढक । क्वाथार्थ-गिलोय १०० पल; जल २ द्रोण, अवशिष्ट क्वाथ आधा द्रोण । जौ, बेर तथा कुलथी; मिलित १०० पल, जल २ द्रोण, अवशिष्ट क्वाथ आधा द्रोण । दशमूल (मिलित) १०० पल, जल २ द्रोण, अवशिष्ट क्वाथ आधा द्रोण। दूध ८ आढक (३२ प्रस्थ)। कल्कार्थ-लामज ( उशीर भेद, खवी), राल; चोरक, लालचन्दन, छोटी इलायची, शैलेय (सहचर, कटसरैया), गन्धबाला, वच, प्रियंगु, मुरामांसी, दारचीनी, तेजपत्र, नागकेसर, अगर, देवदारु, जटामांसी, मञ्जिष्ठा, तगर, कुछ, रेणुका, बला, नागबला, सोये, असगन्ध, एरण्डमूल, कौंछ की जड़, पुनर्नवा, रास्ना, शतावर, सरलकाष्ठ, सैन्धानमक, अनन्तमूल, शालिपर्णी, पृश्चिपर्णी तथा काकोल्यादिगण; प्रत्येक आधापल (४ तोले)। यह तैल वातघ्न है। यदि उपर्युक्त तैल में गुडूची क्वाथ की जगह १०० पल प्रसारणी के क्वाथ से पाक किया जाय तो प्रसारणी तैल, यदि १०० पल रास्ना के क्वाथ से पाक किया जाय तो रास्ना तैल, यदि १०० पल सहचर (कटसरैया) के क्वाथ से पाक किया जाय तो सहचर तैल, एवं यदि १०० पल बलामूल के क्वाथ से पाक किया जाय तो बलातैल कहलाता है। ये पांचों तैल मृदु तथा वातरोगनाशक हैं। इनके मर्दन से दुर्बल शरीर बलयुक्त होता है, रतिशक्ति बढ़ती है। गर्भिणी स्त्रियों को प्रसूति काल में प्रसव सुखपूर्वक होता है। स्त्रियों को त्वचा की मृदुता के लिये इस तेल का शरीर पर मर्दन करना चाहिये । शिशुओं को दन्तोद्गम काल में अर्थात् दांत निकलने के समय इसका प्रयोग कराना चाहिये । इसके प्रयोग से दांत शीघ्र निकल आते हैं ॥३४१-३४६॥

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