________________ भूमिका : 25 इस समय गर्दा करता हूँ / श्रुत, धर्म, संघ और साधुओं के प्रति जो पाप और प्रतिकूल आचरण मैंने किये हैं उनकी और अन्य दूसरे पापों की मैं इस समय गर्दा करता हूँ। अन्य जीवों के प्रति मैत्री और करूणा रखते हुए भी भिक्षाचर्या में मैंने इन जीवों को जो परिताप और दुःख पहुंचाया है, उन पापों की मैं इस समय निंदा करता हूँ। ग्रन्थकार दुष्कृत गर्दा की चर्चा यह कहकर पूर्ण करता है कि मन-वचन-काया तथा कृत-कारित और अनुमोदना पूर्वक जो धर्म विरूद्ध अशुद्ध आचारण मैंने किया है उन सब पापों की मैं गर्दा करता हूँ (51-54) / दुष्कृत गर्दा के पश्चात् सुकृत अनुमोदना की चर्चा करते हुए ग्रन्थकार कहता है कि अरहंतों में अरहंतत्व, सिद्धों में सिद्धत्व, आचार्यों में आचार्यत्व, उपाध्यायों में उपाध्यायत्व, साधुओं में साधुत्व, श्रावकजनों में श्रावकत्व और सम्यक् दृष्टियों में सम्यक्त्व इन सबका मैं अनुमोदन करता हूँ तथा वीतराग के वचनानुसार जो कुछ भी सुकृतं है, उनकी सर्व समय में त्रिविध रूप से मैं अनुमोदना करता हूँ (55-58) / ग्रन्थ में चतुःशरण गमन आदि का फल निरूपण करते हुए कहा गया है कि चतुःशरण गमन का आचरण करने वाला जीव नित्य शुभ परिणाम वाला होता है। कुशल स्वभावी जीव शुभ अनुभाव का बंधन करता है। आगे कहा गया है कि मंद अनुभाव से बद्ध जीव मंद अशुभ बंधन तथा तीव्र अनुभाव से बद्ध जीव तीव्र अशुभ बंधन बांधता है। आगे ग्रन्थकार कहता है कि नित्य संक्लेश में बंधकर त्रिकाल में भी सुकृत फल की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु असंक्लेश में सुकृत फल की प्राप्ति हो सकती है, ऐसा विज्ञजनों ने कहा है। ___चतुःशरण गमन नहीं करने वाले जीव के लिए कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप चतुर्विध धर्म-जिनधर्म का अनुपालन नहीं करने वाला, चतुःशरण गमन नहीं जाने वाला तथा