________________ 32 : चउसरणपइण्णयं के लिए सहज साध्य होता है यही कारण था कि जैन परम्परा में सम्यकदर्शन शब्द जो आत्म-साक्षी भाव या ज्ञाता दृष्टा भाव का पर्यायवाची था, वही सम्यक् दर्शन शब्द पहले तत्व श्रद्धा का और उसके पश्चात् देव, गुरू और धर्म के प्रति श्रद्धा का आधार बना। चाहे हम ईश्वरीय कृपा के सिद्धान्त * को स्वीकार करें या न करें, किन्तु इतना निश्चित है कि शरणप्रपत्ति की अवधारणा के फलस्वरूप व्यक्ति विकलताओं से बचता है और कठिन क्षणों में उसके मन में साहस का विकास होता है, जो सामान्य जीवन में ही नहीं साधना के क्षेत्र में भी आवश्यक है। . अतः हम यह कह सकते हैं कि प्रस्तुत प्रकीर्णक साधकों को अपनी साधना में स्थिर रहने के लिए एक आधारभूत संबल का कार्य करता है। सागरमल जैन सुरेश सिसोदिया