Book Title: Chausaran Painnayam
Author(s): Suresh Sisodiya, Manmal Kudal
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 31
________________ 30 : चउसरणपइण्णयं सर्वोपरिता मान्य की गई थी, किन्तु जैनधर्म में जब आचार्य को संघ प्रमुख मानकर संघ को उसके अधीन कर दिया गया तो संघ का स्थान निम्न हो गया और साधु को प्रमुखता मिली। स्वयं प्रस्तुत प्रकीर्णक में भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि साधु के अन्तर्गत आचार्य और उपाध्याय का भी ग्रहण होता है। बौद्धों के त्रिशरण और जैनों के चतुःशरण में सबसे प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ जैन परम्परा में सिद्धों के रूप में मुक्त आत्माओं को भी शरणभूत माना गया, वहाँ बौद्ध परम्परा में स्पष्ट रूप से निर्वाण प्राप्त व्यक्तियों को शरणभूत नहीं माना गया, यद्यपि बौद्ध धर्म की ओर से यह कहा जा सकता है कि बुद्ध शब्द से भूतकालिक, वर्तमानकालिक और भविष्यत्कालिक तीनों ही प्रकार के बुद्धों का अवग्रहण हो जाता है। यहाँ यह भी प्रश्न उठाया जा सकता है कि शरण तो उनकी ग्रहण की जा सकती है जो हमारा कल्याण कर सकें अथवा कल्याण मार्ग का पथ निर्देशित कर सकें। यह सत्य है कि सिद्धों में सीधे रूप से हमाय मंगल या अमंगल करने की कोई सामर्थ्य नहीं है। जैनों के चतुःशरण में भी तीन ही पद अरहंत, साधु और धर्म हमारे कल्याण के पथ का निर्देशन करने वाले होते हैं। अतः हम यह भी कह सकते हैं कि बौद्धों के त्रिशरण और जैनों के चतुःशरण उद्देश्य की समरूपता की दृष्टि से प्रायः एक दूसरे के सन्निकट ही हैं। . कुशलानुबंधी प्रकीर्णक और चतुःशरण प्रकीर्णक दोनों को चतुःशरण की जो प्राचीन परम्परा और उसका जो प्राचीन पाठ रहा है उसकी व्याख्या रूप ही कहा जा सकता है। चतुःशरण का मूल पाठ जिसे “चत्तारि मंगल पाठ" अथवा "मंगल पाठ" के नाम से आज भी जाना जाता है और जिसका आज भी जैन समाज में प्रचलन है, प्रस्तुत दोनों ही प्रकीर्णक उसकी व्याख्या कहे जा सकते हैं। कुशलानुबन्धी चतुःशरण में तो इन चारों पदों के विशिष्ट गुणों के पृथक-पृथक विवेचन के साथ आलोचना को जोड़कर ग्रन्थ पूर्ण किया गया है।

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