________________ ग्वेद के अने प्राचीन काल हुआ। भक्ति का 28 : चउसरणपइण्णयं उपाध्याय, साधु और श्रावकजनों के शुभ कार्यो की ग्रन्थकार द्वारा अनुमोदना करने का विवेचन है। ग्रन्थकार सुकृत अनुमोदना का विवेचन यह कहकर पूर्ण करता है कि सद्कर्मो के द्वारा अन्य बहुत से भव्य जीवों ने अनुरूप मार्ग अर्थात् मोक्ष मार्ग को प्राप्त किया है, उन सबकी मैं अनुमोदना करता हूँ (18-26) / ग्रन्थकार ने ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया है कि यह चतुःशरण जिसके मन में सदाकाल स्थित रहता है वह इस लोक तथा परलोक दोनों को लॉघकर कल्याण प्राप्त करता है (27) / चतुःशरण की इस परम्परा का विकास जैन धर्म में भक्ति मार्ग के बीज वपन के साथ-साथ हुआ। भक्ति की अवधारणा भारतीय चिन्तन में अति प्राचीन काल से चली आ रही है। यहाँ तक कि ऋग्वेद के अनेक मन्त्र स्तुतिपरक हैं। हिन्दू परम्परा में गीता मुख्यतः भक्तिमार्ग का ग्रन्थ कहा जा सकता है। उसमें कृष्ण अपने भक्त को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि तू मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे मुक्त कर दूंगा। शरणागति की यह अवधारणा हिन्दू धर्म में अपनी सम्पूर्णता के साथ विकसित हुई है। यद्यपि गीता में ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग का प्रतिपादन है फिर भी हमें यह मानने में संकोच नहीं है कि गीता का मुख्य प्रतिपाद्य भक्ति है। भारतीय भक्तिमार्ग की यह परम्परा श्रीमद्भागवत में अपने पूर्ण विकास पर प्रतीत होती है। यद्यपि भारतीय श्रमण परम्परा अनीश्वरवादी परम्परा होने के कारण मूलतः भक्तिमार्गी परम्परा नहीं है। बुद्ध अथवा तीर्थकर कोई भी अपने उपासक को यह आश्वासन देता प्रतीत नहीं होता कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हे सब पापों से मुक्त कर दूंगा। फिर भी श्रमण परम्परा में इन धर्मो में किसी न किसी रूप में भक्ति मार्ग का प्रवेश हो गया। यद्यपि जैन और बौद्ध, दोनों ही धर्म ईश्वरीय कृपा की अवधारणा को अस्वीकार करते हैं, फिर भी इन दोनों परम्पराओं में अपनी सहवर्ती हिन्दू परम्परा के प्रभाव से भक्ति मार्ग ने अपना स्थान बनाया। बौद्ध