Book Title: Chausaran Painnayam
Author(s): Suresh Sisodiya, Manmal Kudal
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 27
________________ 26 : चउसरणपइण्णयं जिसने नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवता ऐसे चतुर्गति रूप संसार का छेदन नहीं किया है, ऐसा जीव मनुष्य जन्म को हार जाता है (59-62) / ग्रन्थकार ग्रन्थ का समापन यह कहकर करता है कि हे जीव! वीरभद्र रचित इस अध्ययन का प्रमाद रहित होकर जो तीनों समय में ध्यान करता है, वह निर्वाण सुख प्राप्त करता है (63) / चतुःशरण प्रकीर्णक की विषयवस्तु का निरूपण निम्न चार परिच्छेदों में हुआ है - 1.अर्थाधिकार, 2. चतुःशरण गमन, 3. दुष्कृत गर्दा और 4. सुकृत अनुमोदना। कुशलानुबंधी चतुःशरण की तरह ही चतुःशरण प्रकीर्णक के अर्थाधिकार में कहा गया है कि समान आचार वाले साधु समूह को कुशलता के लिए चतुःशरण गमन, दुष्कृत की निंदा और सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिये। चतुःशरण गमन नामक परिच्छेद में कुशलानुबंधी चतुःशरण की तरह ही अरहंत, सिद्ध, साधु और जिनधर्म इन चारशरणों की अनुमोदना का संक्षिप्त विवेचन है (2-6) / कुशलानुबंधी चतुःशरण में विवेचित दुष्कृत गर्दा परिच्छेद की तरह भावगत समानता होते हुए भी चतुःशरण प्रकीर्णक की गाथाओं में आंशिक भिन्नता है। दुष्कृत गर्दा परिच्छेद में ग्रन्थकार कहता है कि अनन्त संसार में अनादि मिथ्यात्व, मोह और अज्ञान के द्वारा जो-जो कुतीर्थ मेरे द्वारा किये गये, उन सबको मैं त्रिविध रूप से त्यागता हूँ। रति पूर्वक जीवोत्पत्ति, जीवाघात अथवा कलह आदि जो कुछ भी मेरे द्वारा किया गया, उन सबको मैं आज त्रिविध रूप से त्यागता हूँ। वैर- परम्परा, कषाय-कलुषता और अशुभ लेश्या के द्वारा जीवों के प्रति मेरे द्वारा जो कुछ भी पाप किया गया है, उनको मैं त्यागता

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