________________ 47 : चतुःशरण प्रकीर्णक (33-34)चौदह, दस और नौ पूर्वो के धारक तथा बारह या ग्यारह अंगों के ज्ञाता तथा जिनकल्प यथालंद और परिहार विशुद्धि नामक चारित्र को धारण करने वाले, क्षीराश्रव लब्धि वाले, मध्वाश्रव लब्धि वाले, संभिन्नस्रोतलब्धि वाले, कोष्ट बुद्धि वाले, चारण शक्ति वाले, वैक्रिय शरीर वाले तथा पदानुगमन करने वाले साधु मेरे लिए शरणभूत हों। (35) वैर-विरोध से विमुक्त, कभी भी द्वेष नहीं करने वाले तथा जिनका मोह नष्ट हो गया है, ऐसे प्रशान्त मुख-मुद्रा वाले एवं गुण समूह से युक्त साधु मेरे लिए शरणभूत हों। (36) स्नेह अर्थात् राग रूपी बन्धन को नष्ट करने वाले, अहंकार से रहित, विकार रहित सुख की कामना वाले, सत्पुरुषों . के मन को आल्हादित करने वाले तथा आत्मा में रमण करने वाले साधु मेरे लिए शरणभूत हों। . (37) विषय- कषायों से मुक्त, घर से रहित, गृहिणी सम्बन्धी विषय-सुखों का परित्याग करने वाले तथा हर्ष, विषाद, कलह एवं शोक से रहित साधु मेरे लिए शरणभूत हों।