________________ 45 : चतुःशरण प्रकीर्णक (28) परम आनन्द को प्राप्त, गुण सम्पन्न, जन्म-मरण की परम्परा को विदीर्ण (समाप्त) करने वाले, सूर्य एवं चन्द्र प्रभा को भी लघुभूत करने वाले अर्थात् उनसे अधिक तेजस्वी तथा समस्त द्वन्द्वों का क्षय करने वाले सिद्ध मेरे लिए शरणभूत हों। (29) दुर्लभता से प्राप्त होने वाले परमब्रह्म ( परम-पद ) को उपलब्ध समारम्भ अर्थात् हिंसक मनोभाव से विमुक्त, धरण एवं स्तम्भ की तरह जगत को धारण करने वाले तथा आरंभ ( हिंसा ) से विरत सिद्ध मेरे लिए शरणभूत हों। . (साधु शरण) (30) सिद्धों की शरण के पश्चात् नवबाड़ सहित ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, साधुजनों के गुणों के प्रति उत्पन्न अनुराग से पृथ्वी की तरह शान्त एवं सुप्रशस्त प्रयोजन वाले साधुओं के गुणों को मैं इस प्रकार कहता हूँ : (31) समस्त जीव-लोक (षट्जीव निकाय) के बान्धव, कुगति रूप समुद्र से पार उतारने वाले, महाभाग्यवान तथा ज्ञानादि से शिव सुख अर्थात् मोक्ष की साधना करने वाले साधु मेरे लिए शरणभूत हों। (32) केवलज्ञानी, परम-अवधिज्ञानी, विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी, श्रुतधर (पूर्वधर) और जिनवचन में अनुरक्त जो आचार्य, उपाध्याय आदि हैं, वे सभी साधु मेरे लिए शरणभूत हों।