________________ 63 : चतुःशरण प्रकीर्णक (12) अनवरत पाप कर्मों में आसक्त रहने के कारण जन्म-मरण के निमित्त से शरीर का ग्रहण और परित्याग करते हुए मैं जिन पापों में आसक्त हुआ हूँ, उनका त्रिविध रूप से परित्याग करता हूँ। (13) लोभ, मोह और अज्ञानवश सम्पत्ति को प्राप्त कर तथा उसे धारण कर जो अशुभ स्थान को मैंने प्राप्त किया है, उसको मन, वचन और काया के द्वारा त्यागता हूँ। (14) गृह, कुटुम्ब और स्वजन जो मेरे हृदय को अतिप्रिय रहे किन्तु फिर भी मुझे विभिन्न जन्मों में उनका परित्याग करना पड़ा, उन सभी के प्रति मैं अपने ममत्व का परित्याग करता हूँ। (15-17) हल, ऊँखल, शस्त्र, यंत्र आदि साधनों के द्वारा पाप कर्म का जो उपार्जन मैंने किया है, उन सबका मैं परित्याग करता हूँ। संसार में मिथ्यात्व भावों को उत्पन्न करने वाले, पाप कर्मों के जनक तथा विग्रह कराने वाले जो कुशास्त्र आदि हैं, मैं उन सबकी निन्दा करता हूँ तथा अज्ञान, प्रमाद, द्वेष और मूढता के कारण अन्य जो कुछ भी पाप कर्म मैंने किये हैं, उन सबका मैं त्रिविध रूप से प्रतिक्रमण करता हूँ। ..... (सुकृत अनुमोदना) ' (18) देह, स्वजन, व्यापार, धन-सम्पत्ति तथा ज्ञान और कौशल, इनका जो उपयोग सद्धर्म में हुआ हो तो उन सबकी मैं अनुमोदना करता हूँ। जीवों के कल्याण के लिए जिन्होंने सद्-धर्म की देशना और सुतीर्थ की स्थापना रूप जो शुभ कार्य किया, उनका मैं त्रिविध रूप से बहुमान करता हूँ।