________________ 39 : चतुःशरण प्रकीर्णक (चतुःशरणगमन) (11) अरहन्त, सिद्ध, साधु और केवलि भाषित सुरवावह धर्म- ये चार शरण चर्तुगति के हरण करने वाले अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त कराने वाले हैं। जो इनकी शरण ग्रहण करता है, वह धन्य है। (अरहंत शरण) (12-13) जिनेन्द्र देव के प्रति भक्ति युक्त उल्लसित चित्त वाला और रोमांच से जिसका वक्षःस्थल उन्नत हो गया है, ऐसा वह विशिष्ट हर्ष से युक्त होकर सिर पर अंजलि करके कहता है कि राग-द्वेष रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले, आठकर्मो• का हनन करने वाले तथा विषय-कषाय रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। : (14) राज्य वैभव को त्यागकर, दुश्चर तप तथा चारित्र का अनुसरण करता हुआ मैं केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी समान श्री अरहंतों की शरण ग्रहण करता हूँ। (15) अमरेन्द्र और नरेन्द्र द्वारा पूजित, स्तुतित, वन्दित और शाश्वत सुख को अनुभव करने वाले अरहंत मेरे लिए .. शरणभूत हों। (16) योगीन्द्र और महेन्द्र भी जिनका ध्यान करते हैं, जो मनः पर्याय ज्ञान से दूसरों के मनोगत भावों को जानते हैं तथा धर्म का प्रतिपादन करते हैं, ऐसे अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। * यद्यपि अरहंत चार घाती कर्मो को नष्ट करते हैं किन्तु उनका लक्ष्य तो आठ ही कर्मो को सम्पूर्ण रूप से समाप्त करने का होता है। अतः यहाँ इसी लक्ष्य (अपेक्षा). से उन्हें अष्ट कर्मों का हनन करने वाला कहा गया है।