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चतुर्विंशति जिनस्तवन.
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कुगुरु तरंग मन रंग लावे । ते नरा ज्ञान को अंस नहीं ऊपनो हार नरदेह संसार धावे ॥ ० ॥ ५ ॥ तत्त्व सरधान बिन सर्व करणी करी वार अनंत तुं रह्यो रीतो । पुण्य फल स्वर्ग में जोग उधो गिरयो तिर्यग् औतार बहुवार कीतो । ऊंटका मेगला खां लागी जिसो अंतमें खाद
से जयो फीको । चार गत वास बहु दुख नाना जरे जयो महा मूढ सिर मौर टीको ॥ सु० ॥ ६ ॥ सुविधि जिनंद की न अवधार ले कुमत कुपंथ सब दूर टारो | पक्ष कदाग्रह मूल नहीं तानियो जानीयो जैन मत सुध सारो । महा संसार सागर थकी नीकली करत आनंद निज रूप धारो | सुकल अरु धरम दोज ध्यान को साधले आतमा रूप अकलंक प्यारो ॥ सु० ॥ ७ ॥
इति श्री सुविधि जिनस्तवनम् ।