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चतुर्विशति जिनस्तवन.
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श्रातम रूपी । श्रवर न कोई सहा ॥ सम् ॥चा ॥७॥
इति श्री चन्धप्रजजिनस्तवनम् ॥ श्री सुविधिनाथ जिनस्तवन ।
सुविधि जिन बंदना पापनिकंदना जगत आनंदना मुक्ति दाता। करम दल खंमना मदन विहंमना धरम धुर मंमना जगत त्राता ॥ अवर सहु वासना डोर मन आसना तेरी उपासना रंग राता । करो मुऊ पालना मान मद गालना जगत उजालना देह साता ॥ सु० ॥१॥ विविध किरीया करी मूढता मन धरी एक पदेलरी जगत नूल्यो । मान मद मनधरी सुमति सब परहरी जैन मुनि नेष धर मूढ फूल्यो ॥ एही एकंतता अति ही पुरदंतता नास कर संतता कुःख फूल्यो ॥ संग सिकि कही ज्ञान किरीया वही दूध साकर मिली रस