Book Title: Chaiyavandana Mahabhasam
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 75
________________ सिरिसतिसरिविश एवल र भरतादेरपिपरवायाचिनो भवन्ति । धर्मवरचातुरन्ते वीर्यकरायवर्षिसमाः॥ ३४२ ॥ बहवा चउदिसिधार, चउरतं चकमेव निदिई । दाण-तव-सील-मावणचउधारं धम्मचकमिण ॥३४॥ अथवा चतुर्दिग्धारं चतुरन्तं पकमेव निर्दिम् । दान-तपः-शील-भावनाचतुर्धारं धर्मचक्रमिदम् ॥३४३॥ पठी संपत् घउगइअंतकरं ता, धम्मो विहुचाउरंतचकसमो। वति तेण वाचम्मचकवट्ठी जिणा सम्हा ॥ ३४४॥ चतुर्गसन्तकरं ततो धर्मोऽपि खलु चातुरन्सपासमः । वन्ते तेन परधर्मचक्रवर्तिनो जिनातस्मात् ॥ ३४४ ।। अप्रतिहतवर- अपडिहयमक्खलियं, वरं पहाणं ति खाहमण । झान-दर्शन केवलियनाण-दसणधराण एसो मम पणामो ॥३४५।। मप्रतिहतमस्खलितं वरं प्रधानमिति क्षायिकत्वेन । केवलिकवरज्ञानदर्शनधरेभ्य एष मम प्रणामः ॥ ३४५ ॥ व्यावृत्तछानः विणियह ति पणह, छउमं चउपाइकम्मसर्व तु। सप्तमी संपत् जेसिं तेसि नमो मे, सत्चमिया संपया दुपया॥३४६ विनिवृत्तमिति प्रणष्टं छग चतुर्णातिकर्मरूपं तु । येभ्यस्तेभ्यो नमो मे सप्तमिका संपतिपदा ॥ ३४६ ॥ शा-समाधी नणु अझ वि कम्माई, जिणाण नट्ठाई किं चउक्केण । सचं ओसरणत्थे,पहुच छउमक्खओ मणिो ॥३४७॥ नन्वष्टापि कर्माणि जिनानां नष्टानि किं चतुष्केण । सत्यमवसरणार्थे प्रतीत्य छप्रक्षयो भणितः ॥ ३४७ ॥ जिन-आदिप. रागदोसजयाओ, होति जिणा जावया य अमोसि । दानि तिना य भवसमुदं, अबेसिं तारया य जिणा॥३४८॥ राग-द्वेषजयाद् भवन्ति जिना जापकाश्चान्येषाम् । तीर्णाश्च भवसमुद्रमन्येषां तारकाम जिनाः ॥ ३४८॥ धराः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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