Book Title: Chaiyavandana Mahabhasam
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 161
________________ ११८ सिरिसतिदारविह जं वा-सदो पयडो, पक्वंतरसूचनो वहि जत्ति। संपुर्ण वा वंदर, कलह वा तिमि उईओ ।।८२५।। पद् वाशब्दः प्रकटः पक्षान्तरसूचकखत्राऽस्ति । संपूर्णा वा वन्दते, कर्षति वा तिनस्तु स्तुतीः ॥८२५॥ एसो वि हु भावत्यो, संभाविजह इमस्स सुचस्स । ता अन्नत्यं सुतं, अनत्थ न जोइउं जुनं ॥ ८२६ ।। एषोऽपि खलु भावार्यः संभाव्यतेऽस्य सूत्रस्य । ततोऽन्यार्थ सूत्रमन्यत्र न योजयितुं युक्तम् ॥ ८२६ ॥ जह एपियमेतं चिय, जिणवंदणमणुमयं सुए हुतं । युइ-थोचाइपवित्ती, निरत्थिया होज सवावि ८२७ यदि एतावन्मात्रमेव जिनवन्दनममुमतं भुते भवत् । स्तुति-स्तोत्रादिप्रवृत्तिनिरर्थका भवेत् सर्वाऽपि ॥ ८२७॥ संविग्गा विहिरसिया, गीयत्थतमा य सूरिणो पुरिसा। कह ते सुत्तविरुदं, सामायारी परुर्वेति ॥ ८२८ ।। संविना विधिरसिका गीतार्थतमाश्च सूरयः पुरुषाः। कथं ते सूत्रविरुद्धां सामाचारी प्ररूपयन्ति ।। ८२८ ॥ अहवावैस्यवन्दन- चीवंदणा उ दुविहा, निचा इयरा उ होइ नाया। तचिसयमिमं सुत्तं, मुणति गीया उ परमत्वं ॥८२९॥ मथवा चैत्यवन्दना तु द्विविधा नित्या इतरा तु भवति शातल्या। तद्विषयमिदं सूत्रं जानन्ति गीतास्तु परमार्थम् ॥ ८२९॥ सम्ममवियारिऊणं, सओ य परओ य समयसुत्ताई । बो पवयणं विकोवइ, सो नेओ दीहसंसारी ॥८३०॥ सम्यगविचार्य खतश्च परतश्च समयसूत्राणि । यः प्रवचनं विगोपायति स शेयो दीर्घसंसारी ॥१०॥ विध्यमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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