Book Title: Bhav Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

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Page 70
________________ गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति अविरत {2} { तिर्यञ्च गति, असंयम } भाव {27} {औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक Jain Education International सम्यक्त्व, मति, श्रुत, अवधि ज्ञान, | क्षायोपशमिक पाँच लब्धि, तिर्यंच गति, क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय, स्त्रीलिंग, पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या, असंयम, अज्ञान, असिद्धत्व, जीवत्व, भव्यत्व } अभाव (5) {कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मिथ्यात्व, अभव्यत्व } तासिमपज्जत्तीणं किण्हातियलेस्स हवंति पुण । ण सण्णाणतिगं ओही दंसणसम्मत्तजुगलवेभंगं ||60|| तासामपर्याप्सीनां कृष्णत्रिकलेश्या भवन्तिः पुनः । न सज्ज्ञानत्रिकं अवधिदर्शनसम्यक्त्वयुगलविभंगं ॥ अन्वयार्थ - (तासिमपन्नत्तीणं) उनकी अर्थात् स्त्रीवेदी भोगभूमिज तिर्यञ्च के अपर्याप्त अवस्था में (किण्हातियलेस्स) कृष्णादि तीन लेश्याएं ( हवंति) होती है ( सण्णाणतिगं) तीन सम्यग्ज्ञान (ओहीदंसण) अवधि दर्शन (सम्मत्तजुगलवेभंग) दोनों सम्यक्त्व अर्थात् उपशम, वेदक सम्यक्त्व विभंगावधि ज्ञान (ण) नहीं होता है । भावार्थ - स्त्रीवेदी भोग भूमिज तिर्यंच के निर्वृत्य पर्याप्त अवस्था में कृष्णादि तीन लेश्याएँ ही होती हैं। तीन सम्यग्ज्ञान, अवधि दर्शन, उपशम वेदक सम्यक्त्व और विभंगावधि ज्ञान नहीं होता है। तथा इस अवस्था में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान ही होते हैं । (57) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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