Book Title: Bhav Tribhangi
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Gangwal Dharmik Trust Raipur

Previous | Next

Page 144
________________ संदृष्टि नं.77 भव्य जीव (53) भव्य मार्गणा में भव्य जीवों के पूरे 53 भाव होते हैं। उसका कथन गुणस्थानवत् समझना चाहिए। संदृष्टि इस प्रकार है - गुणस्थान भाव व्युच्छित्ति । भाव अभाव 2 19 34 32 21 मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत olol 33. 20 36 17 - देशव्रत - 2 31 22 - 0 31 22 प्रमत्त संयत अप्रमत्त 31 22 + 28 25 अपूर्व करण अनिवृति करण सवेद भाग 28 25 अनि. अवेदभाग 25 28 सूक्ष्म. 22 21 32 उपशांत मोह क्षीणमोह 20 33 सयोग के. 14 39 - 13 40 अयोग के. टिप्पण :- भव्य जीवों में अभव्य भाव संभव नहीं है। किन्तु आचार्य महाराज के अनुसार जो सारणीग्रन्थ में उपलब्ध है। वही यहाँ दी गई है। यथार्थ में अभव्य भाव की संयोजना नहीं करना चाहिए। -सम्पादक (131) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158