Book Title: Bhashya Trayam
Author(s): Devendrasuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 17
________________ बीओ सुयत्थयाइ, अत्थओ वन्निओ तहिं चेव; सक्कत्थयंते पढिओ, दव्वारिह - वसरि पयडत्थो ॥ ४८ ॥ दूसरों भी वहीं (आवश्यक चूर्णिमें) पर श्रुतस्तव के प्रारंभ में अर्थ से कहा हैं । शक्रस्तव के बाद में द्रव्य अरिहंत की स्तवना प्रसंग पर साक्षात् शब्दों से हैं । उच्चारा है ( बोला है) ॥४८॥ असढाइन्नणवज्जं, गीअत्थ - अवारिअं ति मज्झत्था; आयरणा वि हु आणत्ति वयणओ सुबहु मन्नंति ॥ ४९ ॥ निर्दोष पुरुषों द्वारा आचरित आचरण वह निर्दोष है । ऐसे आचरण का मध्यस्थ गीतार्थ पुरुष निषेध नहीं करते, लेकिन “ऐसा आचरण भी प्रभु की आज्ञा ही है ।" इस वचन से मध्यस्थ पुरुष, सम्मान देते हैं ॥४९॥ चउ वंदणिज्ज जिण मुणि, सुय सिद्धा इह सुराइ सरणिज्जा; चउह जिणा नाम ठवण दव्व भाव जिण-भेएणं ॥ ५० ॥ जिन, मुनि, श्रुत और सिद्ध ये चार वंदन करने योग्य हैं । और यहाँ पर देव स्मरण करने योग्य हैं । नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये जिनेश्वरों के भेदों को लेकर चार प्रकार के जिनेश्वर हैं ||५०॥ नामजिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिणिदपडिमाओ; दव्वजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था ॥५१॥ भाष्यत्रयम् १६

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